श्रावक विवेकी होता है, लेकिन उसका विवेक किस प्रकार जागृत होगा या होना चाहिए?
श्रावक को विवेकी होना चाहिए और विवेक किस प्रकार जागृत हो, तो देखो एक बार की बात है; मैं क्षुल्लक अवस्था में था और गुरुदेव की आज्ञा से उनकी ही उपस्थिति में मेरा एक प्रवचन हुआ। शुरुआत थी, आता-जाता तो कुछ था नहीं। मैंने प्रवचन में एक प्रयोग किया- सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक चारित्र को श्रद्धा, विवेक और चरित्र यानि आचरण और इसके विपरीत मिथ्या दर्शन, मिथ्या ज्ञान, मिथ्या चारित्र को असमीचीन श्रद्धा, असमीचीन विवेक और असमीचीन आचरण कह दिया। मेरे प्रवचन के बाद गुरुदेव का प्रवचन हुआ। उन्होंने मेरी बात को पकड़ा और मुझे समझाते हुए कहा कि देखो विवेक कभी असमीचीन नहीं होता, विवेक सदैव समीचीन ही होता है। विवेक वो जो विभाजक बने, विभाजन करें। विवेक वह जो परख दे। अगर विवेक है, तो सही है; नहीं है, तो अविवेक है। तो यह विवेक कैसे हो, परख कैसे आयेगी? काँच और कञ्चन की परख करने का काम अगर आपको सीखना है, तो जौहरी के पास जाना होगा। जौहरी के पास जाओगे, तभी काँच और कञ्चन का भेद सीखोगे। इसी प्रकार अंतर हृदय में विवेक को जागृत करना चाहते हो, तो उनके चरण सान्निध्य में रहो, जो विवेक को जागृत कर अपना विवेकपूर्ण जीवन बिता रहे हैं। तुम्हारा जीवन नेक होगा, तुम्हारा विवेक जागृत होगा।
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