शंका
अपने स्वरूप का चिन्तन करने में बार-बार विकल्प क्यों होते हैं और उसे कैसे शान्त करें?
समाधान
स्वरूप के चिन्तन के विषय में समाधि तन्त्र में आचार्य पूज्यपाद ने बहुत अच्छी बात कही। उन्होंने लिखा
जानन्नप्यात्मनस्तत्त्वं विविक्तं भावयन्नपि।
पूर्वविभ्रमसंस्काराद् भ्रान्तिं भूयोऽपि गच्छति।।
एक साधारण व्यक्ति की बात तो बहुत दूर, वे योगियों को केंद्र बनाकर के कहते हैं कि-“आत्मा के स्वरूप में जानते हुए, आत्मा के स्वरूप में जानते हुए भी, उसके बारे में बार-बार अकेले में चिन्तन करने के बाद भी, पुराने भ्रांति के संस्कार के कारण हमारा चित्त बार-बार भ्रमित हो जाता है, ये संस्कार हैं। इन संस्कारों को जब तक हम नष्ट नहीं करें तब तक इससे अपने आप को बचा पाना सम्भव नहीं है; निर्जरा और कुछ नहीं, उन संस्कारों की क्षति का नाम है।
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