हम लोग काफी पिछड़े हुए अञ्चल बस्तर ज़िले से हैं। वहीं उड़ीसा भी हमारा समीपवर्ती प्रदेश है। वहाँ पर कुछ गाँवों में, आदिवासी अंचलों में जिनेन्द्र भगवान की मूर्तियाँ हैं, विशेष रूप से चतुर्थ कालीन हैं। उनकी पूजा-आराधना गाँव वाले अपने ढंग से करते हैं। कुछ २-१ मन्दिरों को जैन समाज ने अपने माध्यम से अपने प्रभाव से पूजन योग्य बनाया है और वहाँ पर अपनी आमना के हिसाब से पूजा की जा रही है। लेकिन ऐसे विरले ही हैं और अन्यत्र कई जगह ऐसी मूर्तियाँ वहाँ पर विराजमान हैं, वेदी सहित भी हैं, चौबीसी भी है, तो उसके लिए हमें क्या करना चाहिए?
उड़ीसा जैन धर्म का बहुत बड़ा केंद्र था। आपको सुनकर आश्चर्य होगा कि आठवीं शताब्दी तक कलिंग का राष्ट्रीय धर्म जैन धर्म था। यह हम सब का दुर्भाग्य है कि आठवीं शताब्दी के बाद जैन धर्म का बहुत तेजी से नाश हुआ, विनाश हुआ और विधर्मियों के बहुत बड़े बड़े आघात झेलने पड़े। आज वहाँ जैन धर्म का वजूद समाप्तप्राय है। फिर भी पूरा अवशेष उपलब्ध है, अनेक अनेक प्राचीन प्रतिमायें वहां उपलब्ध हैं।
हमारा प्रयास होना चाहिए कि जहाँ भी ऐसी प्रतिमा उपलब्ध हैं, हम उनका संरक्षण करें। वे लोग पूजा-अर्चना कर रहे हैं, उनसे से निवेदन करें कि आप पूजा अर्चना सही विधि से करें। हो सके तो कम से कम उसको छाया प्रदान करें और उन्हें बताएँ कि गलत रीति से पूजा करने का परिणाम अच्छा नहीं होगा। भगवान् की पूजा भगवान् के हिसाब से करें, उसमे किसी प्रकार की हिंसा और सिंदूर आदि लेबन की प्रक्रिया से उनको बचायें। अगर इस तरह का मोटिवेशन मिले तो बहुत बड़ा काम हो सकता है और समाज को भी चाहिए कि ऐसे स्थानों का पता लगाकर उनकी सुरक्षा करे, संरक्षण करे। उनकी पूजा अर्चना की व्यवस्था को सुनश्चित करे।
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