मायाचारी जीव भी विनम्र होता है और सदाचारी जीव भी विनम्र होता है। इन दोनों के मध्य भेद कैसे किया जा सकता है?
दोनों में भेद वैसे ही होता है जैसे कोई बाल ब्रह्मचारी होता है और कोई वैधव्य के कारण ब्रह्मचर्य लेता है। एक का व्रत उसके अन्दर की स्वीकृति है और दूसरे का व्रत उसकी मजबूरी। मायावी आदमी की सरलता उसकी मजबूरी है। सरल आदमी की सरलता उसके हृदय की अभिव्यक्ति है।
कृत्रिमता हमेशा कृत्रिम होती है, बाहर से सरल होना महत्त्वपूर्ण नहीं है, हमारे मन का सरल होना सबसे महत्त्वपूर्ण है। कुरल काव्य में लिखा है “व्यक्ति की पहचान उसके बाहरी बर्ताव से नहीं, उसके आन्तरिक अभिप्राय से करो।” उसमें लिखा है कि “तम्बूरा टेढ़ा होता है और बाण सीधा होता है। लेकिन बाण घात करता है, हृदय का विघात करता है और तंबूरा चित्त को निनादित करता है।” वह टेढ़ा भी अच्छा है जो अन्दर से सरल हो और वह सीधा भी खराब है जो भीतर से कुटिल हो।
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