भावों में डूब कर पूजा कैसे करें?

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शंका

आपके प्रवचन में मैंने सुना है कि ‘भावों में डूब कर पूजा करनी चाहिए’ तो भावों में कैसे डूबे रहें कि हम उससे बाहर ही न आयें?

समाधान

सवाल है कि पूजा भावों में डूब कर करें तो कैसे डूबें? उसी में डूबें / तैरते रहें, बाहर न निकलें। भीतर वहीं डूबता है जो तैरना जानता है। यदि तैरने की कला अवगत है, तो हम गहरी डुबकी लगा सकते हैं। बहुत देर तक लगा सकते हैं। जो अच्छा तैराक होता है, उसकी डुबकी उतनी गहरी होती है। ये बात भी सही है कि कितना भी कुशल तैराक क्यों न हो, एक समय बाद से उसे बाहर ही आना पड़ता है। भावों में डूब कर पूजा करें मतलब जितनी देर आप पूजा करें उसमें आप तन्मय हो जायें। पूजा के शब्द, पूजा के बोल में लीन हो जाये, और इसका उपाय-मन्दिर में बैठे भगवान की उपस्थिति का एहसास! केवल ये न देखें कि ‘भगवान की वेदी के सामने विराजित भगवान को मैं पूज रही हूँ।’ आप ये देखें कि ‘मैं साक्षात् तीर्थंकर भगवान की चरणों की आराधना कर रही हूँ।’ आपके सामने साक्षात् भगवान दिखेंगे। आपकी भाव धारा अपने आप लगने लगेगी। फिर कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है। 

लेकिन जब मूर्ति को पूजते हैं तो थोड़ी देर में मन भागता है। मूर्तिमान को पूजने लगेंगे तो मन सदैव लगा रहेगा। तो जितनी देर हम पूजन करें उतनी देर हम भगवान में डूब जायें, पूजा के शब्दों में लीन हो जाये, इधर-उधर न देखें, और एक संकल्प और जोड़ लें कि जब तक पूजन करेंगे तब तक के लिए मौन रहेंगे। कभी-कभी ऐसा होता है कि पूजा करने वाले बीच पूजा में एक दूसरे से बातें करने लगते हैं, तो पूजा एक तरफ धरी रह जाती है। पूजा करने के उपरान्त ही हम किसी से बातें करें और कोई व्यवधान न हो। आनन्द आ जायेगा।

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