आज के आधुनिक युग में बेटा-बेटी में कोई फर्क नहीं है, लेकिन एक फर्क हमें देखने में आता है। जिनकी पहली सन्तान बेटा होती है, वो लोग सोचते हैं ‘अब टेंशन फ्री’, जिनके पहली सन्तान बेटी होती तो वह लोग सोचते हैं कि ‘आगे बेटा कभी होगा या नहीं?’ आपने कहा था कि हमे श्रावकाचार को बढ़ाना चाहिए तो ऐसी स्थिति में जैन धर्म की आगे और प्रभावना कैसे होगी? आदिनाथ भगवान के भी दो पुत्रियाँ थी। उस काल में लोगों ने बेटियों के प्रति कैसी भावना रखी थी?
बेटे और बेटी में अन्तर की मानसिकता अभी भी समाज से गई नहीं और अक्सर ऐसा देखा जाता है कि बेटे और बेटी में भेद करने वाली ज्यादातर माताएँ होती हैं, वे भूल जातीं हैं कि मैं भी कभी बेटी थी। मेरे सम्पर्क में ऐसे अनेक लोग हैं जिनकी बेटियाँ हैं, पिता को इतनी तकलीफ नहीं लेकिन माँ को ज़्यादा तकलीफ है कि एक बेटा हो जाए। ये मानसिकता बदलनी चाहिए, प्रकृति ने जो दे दिया वह सहज है। पर यह मानसिकता अभी भी है। कुछ पढ़े-लिखे लोगों में भी ये मानसिकता होती है। हालाँकि, काफी कुछ बदलाव आया है, पर इस बदलाव में अभी और वक्त लगेगा।
जैन धर्म के अनुसार सन्तति नियंत्रण का जो भी कृत्रिम उपाय हैं, वह गलत है। सहज भाव से होना चाहिए और इस तरीके से जो करते हैं, वह उनके भावी जीवन के लिए बहुत दुखदाई होता है। बहु सन्तान होना चाहिए, अब तो एक सन्तान पर आ गए हैं, ये बहुत सोचने जैसी बात है। आगे आने वाले दिनों में अगर हम अपने तीर्थ का प्रवर्तन रखना चाहते हैं तो अच्छी योग्य सन्तानों का जन्म तो होना ही चाहिए।
भगवान आदिनाथ के २ बेटियाँ थी, उनकी स्थिति के विषय में तो यही उल्लेख है कि भगवान आदिनाथ ने भरत और बाहुबली से ज़्यादा ध्यान ब्राह्मी और सुंदरी का रखा था और पुत्रों से पहले पुत्रियों को पढ़ाया। भरत और बाहुबली को तो नेतृत्व और शस्त्र विद्या में निपुण किया लेकिन ब्राह्मी और सुंदरी को अक्षर-अंक विद्या देकर प्रशिक्षित करने की कोशिश की है। इसीलिए आज भी लड़कियों के प्रति ज़्यादा ध्यान दिया जाता है क्योंकि वह उभयकुलविवर्धनी मानी जाती है। लड़का तो केवल एक कुल का दीपक होता है कन्या उभयकुलविवर्धनी कहलाती है, इसलिए वह दोनों कुलों के लिए मांगलिक होती है। अतः इस दृष्टि से कन्या को विशेष भाग्यशाली समझना चाहिए।
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