नौकरी-व्यवसाय के कारण घर से बाहर रहने वाले शुद्ध भोजन की व्यवस्था कैसे करें?

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शंका

आज युवक व युवतियों को धनोपार्जन के लिए बाहर अन्य शहरों में जाना पड़ता है और वहाँ पर शुद्ध भोजन इत्यादि की व्यवस्था नही हो तो उनको क्या करना चाहिए?

समाधान

आज बड़ी ज्वलंत समस्या है। नौकरीपेशा के लोगों को सर्वत्र जाना पड़ता हैं। पहले तो आप अगर कहीं जाते हैं तो आप खान-पान के अपने नियमों का अनुपालन करें; अगर व्यवस्था नहीं है तो अपने हाथ से बना कर के करें। और यदि आपका नियम नही निभता तो वहाँ न जाएं। दूसरा, समाज को चाहिए कि बहुत सारे लोग नौकरी-पेशा के निमित्त या अपने व्यापार-धंधे के निमित्त से एक-दूसरे स्थान पर जाते हैं। तो हर समाज में एसी व्यवस्था होनी चाहिए जहाँ मंदिर है, जहाँ समाज है, वहाँ एक ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि कोई व्यक्ति आए तो उसे सशुल्क भोजन मिल जाए। शुद्ध भोजन मिल जाए। उसकी सूचना मंदिरों में अंकित होनी चाहिए। और वह व्यक्ति आयें वहाँ के पुजारी या अन्य किसी व्यक्ति को इसके लिए अधिकृत कर दिया जाए और वह अपनी सूचना दे और उसका भोजन हो जाए। तो उसका नियम पल जायेगा। 

सन २००१ हमारा टीकमगढ़ मे चातुर्मास था। वहाँ चातुर्मास में शुद्ध भोजन व्यवस्था समिति थी। हमारे चातुर्मास के आगंतुकों के भोजन की व्यवस्था की जिम्मेदारी उसी को दी गई। मैंने पूछा “भाई! यह शुद्ध भोजन व्यवस्था समिति क्या तुम्हारी चातुर्मास से अलग है”? “नहीं”,बोले “महाराज! हमने इनको दायित्त्व दिया।” पूछा “यह शुद्ध भोजन व्यवस्था क्या है?” तो उसके एक भदोरा जी थे, जो उसके मुखिया थे। उन्होंने कहा कि “महाराज जी! इसकी एक बड़ी अलग कहानी है। एक बार मुझे दस लक्षण पर्व के दिनों में व्रतों में चेन्नई जाने का प्रसंग आ गया। और जब मैं चेन्नई गया तो, मैं एकासन करने वाला जीव, वहाँ शुद्ध भोजन मिले नहीं। व्यावसायिक कार्य से वहाँ जाना पड़ा। जरूरी काम था। मैं वहाँ चार दिन रहा। चार दिन मुझे शुद्ध भोजन नहीं मिला तो मैं चार दिन केवल चना भिगो कर के खाया। हरी भी नहीं खाया। चना भिगो कर के काम चलाया, हरी खाते नहीं थे; दस लक्षण में और एकासन शुद्ध भोजन से करते। तो केवल चना को भिगो भिगो कर के खा कर के काम चलाया। और तब मेरे मन में आया कि मेरे जैसे ऐसे अनेक श्रावक होंगे जिन्हें या तो अपना व्रत पालन करने में मेरी जैसी स्थिति से गुजरना पड़ता होगा अथवा उनका नियम टूट जाता होगा।” तो घर आए और अपने साथ कुछ लोगों को जोड़ा और शुद्ध भोजन व्यवस्था समिति बनाई। तबसे टीकमगढ़ में चातुर्मास के बहुत पहले से चल रहा था। आज तक टीकमगढ़ में वह शुद्ध भोजन व्यवस्था समिति जो भी लोग दसलक्षण में आते हैं उनको निशुल्क भोजन कराते हैं। और दो सौ-ढाई सौ लोग, जिसमें विद्यार्थी और व्यापारी दोनों होते हैं, दसलक्षण में एकासन करके अपना धर्म ध्यान करते है और जिसका पुण्य इनको जाता है। यह एक दृष्टि है। 

ऐसी परंपरा कई जगह अब चालू हो गयी है। सब जगह ऐसी व्यवस्था समाज को करनी चाहिये। मैं तो कहता हूँ लोग जहाँ जहाँ के आज सुन रहे हैं, प्रयास करें कि कम से कम दस लक्षण पर्व पर ऐसी व्यवस्था करें। इसके अलावा, जो बड़े केंद्र है जहाँ बड़ी समाज है वहाँ सशुल्क लोगों को शुद्ध भोजन मिल जाए। कई परम्पराओं में ऐसा चलता है। तो हमारे लोगों को कही दुविधा का शिकार नहीं होना पड़ेगा। समाज की आवश्यकता है, समाज को इस पर ध्यान देना चाहिए।

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