हमारा प्रश्न है कि बैराग बहुत होता है और दीक्षा लेने के ही भाव हो जाते हैं। आचार्य श्री के पास श्रीफल भी चढ़ जाता है, सब कुछ होता हैं। उसके बाद फिर वैराग्य क्यों बंद हो जाता, ऐसा लगता है कि- “रहने दो! नहीं लेनी दीक्षा।”
मेरी दृष्टि में दीक्षा तो केवल एक रस्म है। आज के संदर्भ में बोल रहा हूँ। दीक्षा तो केवल एक रस्म है, सच्चा वैराग्य तो उसी क्षण होता है जब व्यक्ति घर परिवार का मोह त्याग कर अपने आप को गुरु शरण में समर्पित कर देता है।
वही वैराग्य है। बाकी केवल ऊपर के कपड़े उतरने या बदलने है। इसे कुछ खास फर्क नहीं पड़ता। अब रहा सवाल दीक्षा देने का, तो दीक्षा किसे देना और न देना यह हमारे गुरु के ऊपर निर्भर करता है। उस पर हम कुछ बोल नहीं सकते। हमने निवेदन किया फिर भी गुरु दीक्षा नहीं देँ रहे हैं, यह उनका अपना अधिकार है। उस विषय में हमें अपनी और से कुछ भी बोलने का अधिकार नहीं है। इसलिए उनकी कृपा हमें जल्दी मिल रही है तो मेरा भाग्य है। और उनकी कृपा नहीं मिल पा रही है तो मेरे पुण्य की क्षिणता है, भाग्य की मन्दता है या यूं कहें मेरे अंदर कहीं कोई कसर है। बस गुरु भक्ति, सेवा और अपने विशुद्धि के बल पर उसे बढ़ाने की कोशिश करें जिससे शीघ्र अतिशीघ्र उनके कृपा के पात्र बन सकें।
Leave a Reply