प्राकृत भाषा को कैसे जीवन प्रदान किया जाए?

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शंका

प्राकृत भाषा को कैसे जीवन प्रदान किया जाए?

समाधान

प्राकृत भाषा हमारी मूल भाषा है, आपने बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया है। हमारे तीर्थंकर भगवन्तों की सर्वाधिक मागधी भाषा रही, आधी मागधी और आधी सर्व भाषा। मागधी भी प्राकृत का एक रूप था, हमारे जैन आचार्यों ने अपने ग्रन्थों को प्राकृत में, संस्कृत में, अपभ्रंश आदि जैसे प्राचीन भाषाओं में लिखा। प्राकृत हमारी मूल भाषा है, क्योंकि हमारा महामंत्र णमोकार भी प्राकृत भाषा में लिखा है। इसलिए उस प्राकृत भाषा के प्रति हमारा सहज झुकाव होना चाहिए, आकर्षण होना चाहिए। वर्तमान में विद्या अर्थकरी हो गई तो लोगों का रुझान प्राकृत और संस्कृत जैसी प्राचीन भाषाओं से कम हो गया। मैं सब से कहना चाहता हूँ कि अपनी मूल भाषा को बचा के रखो, जब तक भाषा है, तब तक संस्कृति है। अतः यदि संस्कृति को जीवित रखना चाहते हो, भाषा को सुरक्षित रखो।

इस भाषा के लिए हमें समाज में लोगों को भी प्रोत्साहित करना चाहिए। यहाँ प्राकृत, अपभ्रंश संस्थान है, यहाँ जैन विद्या संस्थान खुला है, बहुत अच्छा काम हो रहा है। इस तरह के कार्यक्रमों को आगे बढ़ाना चाहिए, ताकि हमारे समाज की नयी पीढ़ी इस विषय को जान सके। चलो आज का समय बड़ा अलग है, आज के बच्चों पर प्रतियोगी परीक्षाओं का बोझ बहुत है, परन्तु मैं कहता हूँ, कम से कम महिलाएँ घर बैठे प्राकृत का कोर्स तो कर सकती हैं, अपभ्रंश का कोर्स तो कर सकती हैं। यदि घर बैठे प्राकृत सीख लें, अपभ्रंश सीख लें, संस्कृत सीख लें तो उनका स्वाध्याय भी बढ़ेगा, भाषा का भी ज्ञान होगा और जीवन का भी निखार होगा। इधर-उधर की किटी पार्टियों से भी बच जाएँगी, समय निकालें। महिलाओं को मैं संदेश देना चाहता हूँ, आप के माध्यम से, कि अपना कुछ समय भाषा सीखने के लिए दें। इस तरह की व्यवस्थाएँ हैं, पत्राचार के माध्यम से भी प्राकृत का अध्ययन कराया जाता है, अपभ्रंश का अध्ययन कराया जाता है, उसकी पूरी विस्तृत जानकारी लोगों तक पहुँचाई जाए और जो भी इससे जुड़ना चाहे, उन्हें जोड़ने का प्रयास किया जाए तो मैं समझता हूँ जैन धर्म की प्रभावना में यह एक महत्वपूर्ण कड़ी बनेगी।

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