कहते हैं – ‘पाप कर्म के उदय में अपने विवेक को जागृत रखना चाहिए’। लेकिन विवेक को जागृत रखने के लिए, परिणामों में समता रखने के लिए भी कर्म का मन्दोद्य आवश्यक होता है। फिर तो सब कुछ कर्मों के अधीन हो गया तो ऐसे में हम अपने विवेक को कैसे जागृत रखें?
पाप के उदय में विवेक को जागृत रखें, विवेक जाग्रत होगा जब कर्म का तीव्र उदय न हो। जैन कर्म सिद्धान्त बताता है कि कर्म अपना फल स्वतंत्रता से नहीं दे पाता, बाहरी वातावरण से प्रभावित होता है। जब पाप का तीव्र उदय चल रहा हो और उस घड़ी में आपने कर्म के प्रतिकूल वातावरण को अपना लिया, आत्मा के अनुकूल वातावरण को धारण कर लिया तो हमारी परिस्थितियाँ अपने आप अनुकूल बन जायेंगी। हम लोग क्या करते हैं? पापों का उदय चल रहा है, और अधिक पापात्मक कार्यों में लगते हैं तो पाप को अनुकूलता मिल जाती है, उसके अनुकूल मैदान मिल जाता है और उस मैदान के चक्कर में फिर पाप भारी पड़ जाता है।
हमें चाहिए कि जब भी कभी ऐसी स्थिति आये तो अपनी धारा को हम परिवर्तित करें। पाप का तीव्र उदय आ रहा है, ऐसी जगह चले जाएँ, ऐसे निमित्त ले लें, ऐसे आलम्बन ले लें जिससे हमारा चित्त मुड़ जाए, कर्म को तीव्रता का अवसर न मिले, तीव्रोद्य न हो सके तो हमारी स्थितियाँ बन जाती है, बदल जाती हैं। हमें हमेशा कर्म का मन्दोद्य या कषाय का मन्दोद्य चाहिए। कषाय का उफान आ रहा है, हमारा विवेक हमारी सीमा को लांघ रहा है, उस घड़ी थोड़ा सा धैर्य और संयम रखें, भगवान के दरबार में चले जायें, गुरुओं के वचन सुनने लगे, शास्त्र का स्वाध्याय करने लगे, हमारा चिन्तन बदलेगा और जो कर्म का वेग है, वो शान्त हो जाएगा। संकल्प ले ले, किसी पर गुस्सा आ रहा है, चलो सामायिक करके उठे उसके बाद जाएँगे, एक माला फेरेंगे उसके बाद सोचेंगे तो जितनी देर आपने माला फेरी, उतनी देर में आपका मन काफी कुछ शान्त हो जाएगा तो उसका फ़ोर्स है वो कम हो जाएगा। सीधी-सीधी बात है किसी से लड़ाई लड़नी होती है, तो दांव देखकर के खेला जाता है। जब मौका मिले तो दांव मार दो, ऐसे कर्म को पछाड़ना है, तो मौका देखो और हमला बोलो, तब अपनी जीत होगी।
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