स्वयं को कैसे जानें?

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शंका

जब हम जन्म लेते हैं तो हम एक वाइट बोर्ड की तरह जन्म लेते हैं और उसके बाद जब हम दुनिया में आगे निकलते हैं तो लोगों को देखते हैं, चीजें देखते हैं, लोगों को समझते हैं तो वाइटबोर्ड में हम रंग भरना शुरू करते हैं। जब हम रंग भरना शुरू करते हैं तो हम उसमें इमेज बनाते हैं वह इमेज वो होती है जिसमें हम अपने आपको देखते हैं। कुछ समय के बाद आगे जाकर जब हम इमेज बना लेते हैं और लोगों से मिलते हैं तो हमारा पर्सपेक्टिव बदल जाता है। जो इमेज थी हम उसको अपने तरीके से नहीं देखते, लोगों के पर्सपेक्टिव से देखना शुरू कर देते हैं। धीरे-धीरे वह कलरफुल इमेज थी, रंग भर-भर के वो ब्लैक बोर्ड बन जाता है। हम एक व्हाइट बोर्ड से ब्लैक बोर्ड बन जाते हैं, उसमें अपना अस्तित्त्व खो देते हैं तो कैसे अपनी लाइफ में बेलेंस मेंटेन किया जाए कि इन चीजों को हम निगलेक्ट करें और अच्छा इंसान बनने के पथ पर आगे बढ़ते रहें क्योंकि जब लोग हमसे बातें करते हैं या अपने परस्पेक्टिव हमें बताते हैं तब हम अपना परस्पेक्टिव भूल जाते हैं औए उनकी बातों को ज़्यादा ध्यान देने लगते हैं या अगर नहीं भी देते तो मेरे सबकॉन्शियस माइंड में जाती हैं। वह बातें एक बार हमारे सब्कांसियस माइंड में जाएगी तो कुछ टाइम बाद हमारे कांसियस माइंड में भी आएगी वो ही टाइम होता है जब वो हमारे व्हाइट बोर्ड को ब्लैक बोर्ड में कन्वर्ट कर देती है, तो इस चीज को कैसे सुधारा जाए और कैसे आगे बढ़ा जाए?

समाधान

इन सबका एक छोटा सा समाधान है खुद को जानो, खुद को जानो। तुमने कहा है हम वाइटबोर्ड है। वाइट बोर्ड को हम तब तक वाइटबोर्ड बना कर रख सकेंगे जब तक हम दूसरे की इमेज को उस पर प्रिंट न करें। हम उस वाइटबोर्ड को तो देखें, वो वाइट बोर्ड ही नहीं है वो एक दर्पण है। उसको पहचाने, मैं जो हूँ मेरी असलियत क्या है जब मैं इसे जान लूँगा तो पाऊँगा कि मैं अपने आप में परिपूर्ण हूँ। मुझे किसी से कंपैरिजन की जरूरत ही नहीं, मैं कहीं से कम नहीं, कहीं से अधूरा नहीं, पूरा हूँ और मैं ही क्या, संसार का हर प्राणी अपने आप में पूरा है, कोई अधूरा नहीं, सब अपनी जगह अच्छा है। मैं अपनी जगह अच्छा हूँ, मुझे केवल अपने आप को संभालना है। मैं मैं हूँ, बस मैं मैं बना रहूँ, जो हूँ वह बना रहूँ और कुछ न बनूँ। यह दृष्टि, बहुत गहरा कंसेप्ट है। यह दृष्टि जिसके अन्तरंग में विकसित हो जाती है वह फिर किसी से प्रभावित नहीं होता है। 

लेकिन मुश्किल ये है, अधिकतर लोग अपने आप को नहीं पहचानते हैं। क्या मानते हो अपने आपको, क्या मानते हो तुम कौन हो? “soul” बस जब soul को पकड़ लोगे तो बात ही अलग हो जाएगी, गोल ही चेंज हो जाएगा। सोल को पकड़ो, आत्मा को पकड़ो। मैं आत्मा हूँ बस, वो अपने आप में परिपूर्ण है, कृतकृत्य है, तृप्त है। उसमें कोई कमी नहीं तो फिर दूसरों से होड़ क्यों लूँ। जो मैं हूँ उसको उद्घाटित करूँ। जो मैं हूँ वह दिख नहीं रहा और जो दिख रहा वह मैं नहीं, तो मुझे क्या करना है? जो मैं हूँ उसे देखना है और उसे प्रकट करना है। जो दिखाई पड़ रहा वह मैं नहीं हूँ, वो मुझ में नहीं है, शरीर में नहीं है। ये मेरी बाहरी पर्सनालिटी है, दिख रहा है, ये मैं कहीं से नहीं हूँ। जो मैं हूँ वह मेरी आँखों से ओझल है। उसकी तरफ अपनी दृष्टि करो, इनर साइड में देखो। वो जब तुम्हारे अन्दर जग गई तो तुम्हारे भीतर एक स्पिरिचुअल कांति जागेगी वो तुम्हें अन्दर से परिवर्तित कर देगी। फिर ये भागमभाग, ये आपाधापी, यह प्रतिस्पर्धा, ये कंपटीशन, ये कंपैरिजन सब खत्म हो जाएगा। जो होगा वह जीवन के लिए सहज और आनंददायी होगा।

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