अहिंसा के क्षेत्र में पिछले तीन सालों से जुड़ा हूँ। पर एक बात बार-बार मेरे दिल को दुखा देती है कि जब हम अहिंसा के काम के लिए बाहर निकलते हैं, क्रियाशील होते हैं, पशुबलि बन्द करने की बात करते हैं, कत्लखाने के विरोध में जन आंदोलन करते हैं। ये पूरी बातें रोकने के लिए जब हम तन मन धन से जुट जाते हैं तब हमारे जैन भाई इसमें ज़्यादा सम्मिलित नहीं होते हैं। बाकी के अन्य लोग जो साथ में आते हैं वो कहते हैं कि ‘हम नकारात्मक अहिंसा ज़्यादा पालते हैं। हम अहिंसा पालते हैं मगर पुरूषार्थ करके अहिंसा के क्षेत्र में काम करना कम मानते हैं।’
आपका अनुभव बिल्कुल सही है और ये सम्पूर्ण जैन समाज के लिए बहुत सोचने की बात है। ‘अहिंसा परमोधर्मः’ का केवल जयघोष करने से आप अहिंसक नहीं बन पाएँगे। जब तक धरती से हिंसा का अस्तित्त्व मिटाने में आप संकल्पित नहीं होंगे सच्चे मायनों में अहिंसा का जयघोष कभी होगा ही नहीं।
हमारे गुरूदेव हमेशा यही कहते हैं कि अहिंसा के अनुयायी होने का मतलब ये नहीं है कि हम अपने स्तर तक अहिंसक बने रहें। सच्चे अर्थों में तो अहिंसक वही है जो धरती पर हिंसा का नाम शेष भी न रहने दे और इसके लिए आप लगे हुए हैं। और आप जैसे जितने भी लोग लगे हुए हैं सभी के लिए मैं आशीर्वाद देता हूँ कि ऐसे ही लगे रहें और जो बाक़ी लोग हैं उनसे भी मैं कहता हूँ कि अपने हृदय की संवेदना को जागृत करें और जितना बन सके जीव हिंसा को रोकने में अपनी भूमिका निभाएँ।
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