जैन धर्म को अपनी मूल भाषा प्राकृत की ओर प्रेरित कैसे करें?
आपने बहुत गम्भीर विषय पर ध्यान आकृष्ट किया है। प्राकृत हमारी संस्कृति की आत्मा है। जब तक प्राकृत है तब तक जैन धर्म है। भारत में जैन धर्म की पहचान का आधार प्राकृत है। हमारा मूल मन्त्र णमोकार महामंत्र प्राकृत में है, जिसके बल पर हम अपने एक एक साँस बिताने की भावना रखते हैं। वर्तमान में अर्थकरी विद्या हो जाने के कारण लोगों का ध्यान प्राकृत और संस्कृत अपभ्रंश जैसे मूल भाषा के प्रति हटने लगा है, जबकि हमें इसकी तरफ ध्यान देना चाहिए। बच्चों को प्राकृत पढ़ने के लिए भी प्रेरणा देनी चाहिए। एक बात ध्यान रखना जब तक भाषा है तब तक संस्कृति है। जिस दिन भाषा नष्ट हो जाएगी उस दिन संस्कृति भी नष्ट हो जाएगी। इसलिए भाषा और संस्कृति के बीच हमे जुड़ाव बना कर रखना चाहिए और इसके लिए प्रयास करना चाहिए। आज देश में अनेक जगह प्राकृत विद्या के संस्थान हैं। जयपुर में तो अपभ्रंश साहित्य अकादमी है, उसमें प्राकृत और अपभ्रंश दोनों का जगतगुरु विश्वविद्यालय में यूजी पीजी दोनों चलता है, तो यह चीजें है इसकी तरफ ध्यान देना चाहिए। मैं कहना चाहूँगा आजकल की महिलाएँ बहुत अध्ययनशील है। वह अगर चाहे तो अपनी पढ़ाई सम्पन्न करने के उपरान्त कम से कम इन पर डिप्लोमा या डिग्री का कोर्स करें। प्रकृत पढ़ेंगे तब आप जैन धर्म के मर्म को ठीक तरीके से जान सकेंगे, इसलिए इस दिशा में सार्थक प्रयास होना चाहिए।
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