अहिंसा व्रत का पालन कैसे करें? क्या सेना/पुलिस का जवान हिंसा का भागीदार है?

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शंका

अहिंसा को जैन धर्म का केंद्र बिन्दु माना गया है। यदि अहिंसा व्रत का पूर्णतया पालन किया जाए तो बाकी पापों से हम स्वयं छूट जाएँगे। इसके लिए अहिंसा का पालन कैसे करें और उसे कैसे समझें? क्या अहिंसक व्यक्ति पुलिस और सेना में जा सकता है?

समाधान

अहिंसा हमारे व्रतों में मूल है और हमारे आचरण का प्राण तत्त्व है, अहिंसा तो हमारे जीवन में होनी ही चाहिए। यथार्थ में, सत्य आदि जितने व्रत हैं, वे सब अहिंसा की रक्षा के लिए ही हैं। अहिंसा को पूरी तरह आत्मसात करके चलना चाहिए और अहिंसा को आत्मसात करने के लिए हमें अहिंसा के स्वरूप को ठीक तरीके से समझना चाहिए।

हिंसा और अहिंसा का सम्बन्ध केवल जीवों के वध और अवध तक सीमित नहीं है, जीवों को मारने या न मारने तक सीमित नहीं है। हिंसा और अहिंसा का सम्बन्ध है, हमारे भावों से। किसी भी प्राणी को अगर हम मारने का भाव भी कर लेते हैं, वह प्राणी मरे या न मरे, हमसे हिंसा हो गई। और यदि हमारे अन्दर पूर्ण सतर्कता, सावधानी है और मन में कोई मारने का भाव नहीं है और हमारे निमित्त से किसी जीव का घात हो भी गया, तो हम हिंसक नहीं कहलाते। हिंसा की व्याख्या करते हुए कहा गया: “प्रमत्त योगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा“- प्रमादपूर्वक, असावधानीवश, स्वार्थवश, इरादतन, भाव पूर्वक किसी का घात करना हिंसा है। अगर आप सावधान हैं तो हिंसा की घटना घटने के बाद भी आप हिंसक नहीं हैं। एक डॉक्टर किसी का ऑपरेशन कर रहा है, ऑपरेशन फेल हो गया, ऑपरेशन के फेल होने के बाद भी क्या हम उस डॉक्टर को उसका हत्यारा कहेंगे? नहीं कहेंगे! ‘अरे डॉक्टर साहब ने तो जी-जान लगा दी, क्या करें! हमारा भाग्य ही खोटा था’। ये ही कहेंगे ना! लेकिन एक व्यक्ति ने किसी को गोली मारी, गोली बाजू से निकल गई और वह बच गया, उसको क्या कहेंगे? वो तो उसकी हत्या के इरादे में था, उसके ऊपर जुर्म चढ़ेगा कि नहीं चढ़ेगा? उसके ऊपर हत्या के प्रयास का गम्भीर आरोप लगेगा, अपराध सिद्ध होगा और उसे दण्ड मिलेगा। 

क्या हुआ? एक जगह जीव मर भी गया तो भी वह दण्ड का भागी नहीं और दूसरी जगह बच गया तो भी वह दण्ड का भागी है। जीव मरे या न मरे लेकिन जो अयत्नाचारी है उसको नियम से हिंसा का दोष लगता है। लेकिन जो सावधानी से चलता है, सतर्कता और सजगता से चलता है, हिंसा मात्र से वह दोष का भागी नहीं होता। ये अहिंसा है और अहिंसा का हमें पालन करना चाहिए। 

जहाँ तक पुलिस और सेना में जाने की बात है, अहिंसा उसमें बाधक नहीं बनती। हमारे यहाँ चार प्रकार की हिंसा बताई है:- संकल्पी हिंसा, आरम्भी हिंसा, उद्योगी हिंसा और विरोधी हिंसा। संकल्पी हिंसा का मतलब संकल्प पूर्वक की जाने वाली हिंसा यानी इरादतन की जाने वाली हिंसा है। अपने स्वार्थ, मनोरंजन, स्वाद, लिप्सा और अन्य कार्यों के निमित्त से जो हिंसा होती है, उसको बोलते हैं संकल्पी हिंसा। इसका प्रतिज्ञा पूर्वक पूरी तरह त्याग होना चाहिए। 

आरंभी हिंसा– अपने घर-गृहस्थी के कार्यों में, नहाने, धोने, खाना पकाने आदि के निमित्त से जो हिंसा होती है उसको बोलते हैं आरम्भी हिंसा! जिसके बिना गृहस्थ रह नहीं सकता, वो उसके लिए क्षम्य है पर उसमें यथासम्भव यत्नाचार के पालने का निर्देश है। 

तीसरी है उद्योगी हिंसा– अपनी जीविका के उपार्जन के निमित्त व्यापार, व्यवसाय, उद्योग, धन्धे, खेती-बाड़ी आदि के निमित्त से जो हिंसा होती है उसे बोलते हैं, उद्योगी हिंसा! इसमें यथासम्भव सावधानी रखनी चाहिए, जीवन के निर्वाह के लिए इस तरह का उद्योग आवश्यक है, पर उद्योग में हिंसा हो, हिंसा का उद्योग न हो, इतनी सावधानी भी रखना चाहिए। ये औद्योगिक हिंसा है, जिसमें यथासम्भव यत्नाचार पूर्वक उसका निर्वाह करना चाहिए।

चौथी हिंसा है विरोधी हिंसा– अपने परिवार, कुटुम्ब, समाज, संस्कृति या राष्ट्र की अस्तित्व और अस्मिता पर कोई संकट खड़ा हो, कोई आक्रमणकारी आकर नुकसान पहुँचाने लगे तो उसकी रक्षा के लिए जो हिंसा करनी पड़ती है उसे बोलते हैं विरोधी हिंसा! विरोधी हिंसा गृहस्थ के लिए क्षम्य है। वो हिंसा कर नहीं रहा है, करनी पड़ रही है। सेना और पुलिस के कर्म को क्षात्र कर्म कहा गया है। क्षात्र कर्म क्षत्रिय का कर्म है, अतीत में भी अनेक जैनों ने इस तरह की सेवाएँ दी हैं, आज भी दे रहे हैं, दे सकते हैं, यह अहिंसा में बाधित नहीं है क्योंकि हम रक्षा का उपक्रम कर रहे हैं, किसी को मारने का नहीं।

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