आज के इस प्रलोभन से भरे संसार में हम अपने बच्चों को packed food से कैसे बचा सकते हैं, जिसमें ‘E’ नम्बर वाले ingredients डाले जाते हैं जो ज्यादातर animal derived हैं, जिसमें उनकी माँस-हड्डी का उपयोग होता है। मेरा एक ६ महीने का बच्चा है, तो उसको मैं आने वाले समय में इन उत्पादों से कैसे बचा पाऊँगा?
बच्चों के मन में संवेदना को जगाना है- पहली बात।
‘E’ नम्बर की चीज ‘हम न खाएँ जिसमें पशु उत्पाद हैं’ ये हम अपने बच्चों को बोलते हैं। पर ये बताने में हम प्रायः सफल नहीं रहते हैं कि हम क्यों न खाएँ? पशु उत्पाद हिंसा से सम्बन्ध चीजें हमें नहीं खाना चाहिए। यदि हम ये हिदायतें दें तो ये बताना पहले जरूरी है कि क्यों नहीं खाना चाहिए। ये बताएँ कि जीव हिंसा क्यों बुरी है? उन बच्चों की संवेदना को ये कहकर जगाएँ कि ‘हमें एक छोटी सी सुई चुभती है, तो हमारी आत्मा तिलमिला उठती है। ये सब चीजें प्राणियों के घात से उत्पन्न की जाती है। जब किसी प्राणी को मारा जाता है, तो उसके अन्दर कितनी वेदना और छटपटाहट होती होगी। इसकी तुम कल्पना करो और उस वेदना और छटपटाहट से उसे कितना दर्द होता होगा? जैसे हमारे प्राण हैं वैसे प्राणियों के भी प्राण हैं; अन्तर सिर्फ इतना है हम और हमारे जैसे अन्य प्राणी अपनी पीड़ा को अभिव्यक्त करने में सफल होते हैं और वो पशु पक्षी मूक हैं बोल नहीं पाते।’
बन्धुओं! पशु पक्षी मूक हैं, बेजुबान हैं, पर बेजान नहीं हैं। बच्चों के अन्दर बचपन से जीव दया का भाव जगाएँ, करूणा के भाव जगाएँ और करूणा उनकी तब जगेगी जब उनकी संवेदना अभिव्यक्त होगी। संवेदना की अभिव्यक्ति में लोग प्रायः पिछड़ते हैं। इसका नकारात्मक प्रभाव होता है। बच्चे कहते हैं कि ‘यह तो सब में पड़ा है फिर क्या खाएँ? जैन धर्म में तो सिर्फ छोड़ने-छोड़ने की बातें है।’ धीरे-धीरे उन बच्चों के मन में जैन धर्म से ही घबराहट होने लगती है। यदि हम बच्चों को मनोवैज्ञानिक तरीके से ठीक ढंग से बातें बताएँ, उनके मन में ये बात बैठा दें कि जीव हिंसा करना बहुत बड़ा पाप है, हम किसी को प्राण दे नहीं सकते तो प्राण कैसे ले सकते हैं, तो बच्चे उनसे दूर होंगे। फिर उन्हें अपने स्वाद और स्वास्थ्य के भेद को भी सिखाए।
दूसरे चरण में उन्हें उनके स्वास्थ्य के प्रति जागरूक करें। Health consciousness बढ़ाएँ। आज बच्चे हैं, कुरकुरे खाते हैं जिसमें प्लास्टिक हैं, सब बोलते हैं ‘बड़े चाव से खाते हैं।’ माँ-बाप शुरू से उनके स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता रखें तो ऐसी चीजों के प्रति उनका आकर्षण नहीं होगा। उन्हें ये समझाना चाहिए कि जितने भी packed food हैं वे सब हार्मफुल हैं। बीमारियों के कारण हैं। फास्ट फूड से बचें, और जंक फूड से बचें। इस तरह के डिब्बा बंद और पैक्ड आइटम से बचें जिसमें ठीक तरह से शुद्धि नहीं होती है, तो बच्चों में एक बहुत बड़ा परिवर्तन आयेगा।
मैं जबलपुर में था। सन् १९९७ की बात है जनवरी के महीने की, एक छोटा ढाई साल का बच्चा था। उसकी जेब में ‘5-star’ थी। उसमें ‘E’ नम्बर का भी कोई फन्डा नहीं था। मैंने उस बच्चे को २ मिनट समझाया, बस इतना कहा कि “बेटा! तुम जिस टाॅफी को खा रहे हो पता है वो कैसे बनती है?” वो बोला ‘नहीं मुझे पता नहीं है कि कैसे बनती है?’ हमने कहा इसमें जानवरों की हत्या करके उनके शरीर के मांस और अन्य अंगों को भी मिलाया जाता है। वह बोला ‘महाराज ऐसी बात है! ये तो बहुत बड़ा पाप है हम किसी को मारेंगे, ये तो कितनी बड़ी हिंसा है। ये पाप तो मैं नहीं कर सकता महाराज जी’ और वो बच्चा बोला कि ‘अभी आता हूँ’; और मेरे कमरे से बाहर गया और अपने जेब से टाॅफी निकाल कर फेंक आया और फिर मेरे पास आकर बोला कि महाराज जी आज के बाद मैं कभी नहीं खाऊँगा। ये है संवेदना ढाई साल के बच्चे की!
ये संस्कार आप जगाइए। ऐसे संस्कार आप देते कहाँ हैं? सच बताऊँ, इनको बिगाड़ती हैं आज की मम्मियाँ! “कोई बात नहीं, बेटा चलता है।” कैसे धर्म टिकेगा?
तुम्हारे अन्दर खुद में संवेदना होनी चाहिए। तुम बच्चों को ऐसे पदार्थ खाने के लिए मना करो और अपने होठों पर वही लिपिस्टिक लगाओ क्या असर पड़ेगा तुम्हारा? तुम्हारी कथनी और करनी में अन्तर नहीं होगा तो कोई असर नहीं पड़ेगा।
तुम्हारे अन्दर खुद संवेदना होगी तभी तुम दूसरों के प्रति उनके मन में संवेदना जगा सकोगी। तो ध्यान रखना अहिंसा कोरा आचार नहीं है। अहिंसा का पालन गहरी संवेदनशीलता का प्रतिफलन है। जब तक मनुष्य का हृदय संवेदनशील नहीं होता तब तक वो सच्चे अर्थों में अहिंसक नहीं बन सकता। तो भाई मैं तुमसे भी यही कहना चाहता हूँ कि इसी तरह लोगों में चेतना जगाओ ताकि लोग ऐसे कृत्यों से अपने आप को बचा सकें।
Leave a Reply