बच्चों के किशोरावस्था में भटकने से कैसे बचाएं?

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शंका

किशोरावस्था चरित्र निर्माण का समय होता है लेकिन कई माताएँ उस वक्त अपने बच्चों की गलतियों को नजरअंदाज करके उनको विनाश की ओर धकेल देती हैं, तो ऐसे में उनको कैसे बचाया जा सकता है?

समाधान

बहुत गम्भीर प्रश्न है। किशोरावस्था में बच्चे को जैसा ढालना चाहें वैसा आप ढाल सकते हैं। कोमल वय होती है। १४ साल से लेकर के २० साल की उम्र तक बच्चे के भविष्य पर बहुत कुछ निर्भर करता है। उसका जीवन उसके भविष्य का निर्धारक बन जाता है। उस समय माँ-बाप को चाहिए कि अपने बच्चे पर बहुत ज़्यादा ध्यान दें, न तो उन पर बहुत ज़्यादा नियंत्रण रखें और न ही उन्हें ज़्यादा लाड़- प्यार दे, उन्हें उनकी प्रवृत्तियों पर अंकुश रखते हुए आजादी दें, वह अनर्गल न करें। उन्हें ऐसे समय में धार्मिकता से जोड़ा जाए, गुरुओं का समागम और सानिध्य मिले तो वह बच्चे अपने जीवन में भटक नहीं सकते। 

मैं आपको एक बात बताऊँ, आज एक युवक सुबह मेरे पास आया, उस लड़के ने मुझसे अकेले में समय माँगा और मैंने उसे समय दिया और उस लड़के ने कहा- ‘महाराज मुझसे गलती हुई, मैं भटक गया था। आपने दो दिन पहले शंका समाधान में कहा था और वह मेरे साथ में हुआ, मैं उसका शिकार हुआ।’ “क्या बात है?” ‘मैंने ALCOHOL ले ली, कई बार ली, महाराज मेरा मन कचोट रहा है, मुझे लगता है कि मैंने गलती की, आप मुझे आशीर्वाद दो, आज से मैं उसका त्याग करना चाहता हूँ।’ उसके अन्दर की भावना थी, उसके अन्दर के संस्कार थे, उसने अपनी बात मुझसे कही और उसने प्रतिज्ञा लेकर छोड़ दिया और वह बोला कि ‘मैं आपको शंका समाधान में नियमित सुन रहा हूँ, तब से मेरे मन में भाव था कि कभी आपके पास नजदीक से मिलूँ, अपने मन का भार कम कर सकूँ।’ 

बच्चों को किशोरावस्था क्या, बचपन से ही गुरुओं का समागम मिलना चाहिए। यह विडम्बना है कि आजकल बच्चों को उनकी पढ़ाई-लिखाई के बोझ के कारण गुरुओं का समागम कम मिल पाता है। माँ-बाप भी उनकी तरफ कम ध्यान देते हैं, वह खुद के धार्मिकता का जितना ख्याल करते हैं अपने बच्चों के धार्मिक रुचि को जगाने के उतनी कोशिश नहीं करते। यदि प्रारम्भ से ऐसा करेंगे तो बहुत अच्छा होगा और जो माताएँ थोड़े से व्यामोह में, लाड़-प्यार में ऐसा करती हैं, बहुत गलती करती हैं। 

एक माँ की कहानी में आपको बताता हूँ। कहानी नहीं घटना है। एक माँ का १६ साल का बेटा क्रिकेट के सट्टे में फँस गया। क्रिकेट के सट्टे में खेलते-खेलते, खेलते-खेलते लगभग एक लाख से अधिक का नुकसान कर लिया। अब उसके सामने समस्या आ गई, एक लाख का नुकसान हुआ, वह निकलना चाह रहा है। ‘एक लाख के नुकसान को पूरा कैसे करूँ, एक लाख के नुकसान को अपने पेरेंट्स को कैसे बताऊँ? इतना रुपया कौन देगा?’ तो उसने सोचा ‘इसी से कमाकर के देता हूँ,’ उसको कवर करना तो एक तरफ रहा, नुक़सान ढाई लाख हो गया। ढाई लाख रुपया हो गया तो उसने अपनी माँ को हिम्मत करके बताया और माँ ने एक गलती कर दी। इसकी पूरी बात को सपोर्ट कर दिया- ‘ठीक है! पापा को मत बताना, मैं तेरे को पैसा दे रही हूँ लेकिन तू आगे करना मत’; बेटे को पैसा दिया और वह बच्चा काम छोड़ने की बोल करके भी फिर भी खेलता रहा। एक दिन कुछ कमा कर ले आया तो माँ ने उसको सपोर्ट कर दिया और सपोर्ट करने का नतीजा यह निकला कि फिर उसको लत लग गई और वह क्रिकेट में लाखों का नुकसान कर दिया। जब तक ये स्थिति उसके पिता को पता लगी और वो रुपए करीब 7 lakh तक पहुँच गए थे जो उसके पिता जैसे व्यक्ति के लिए एक बहुत बड़ा भार था। लड़का बर्बाद हो गया। यदि माँ ने उस समय समझदारी का परिचय दिया होता उस बच्चे को एकान्त में समझाते हुए कहा होता कि ‘मैं तेरे लिए समाधान तो दे रही हूँ लेकिन ध्यान रख यदि इसका पता परिवार में किसी को लग जाएगा तो तू किसी को मुँह दिखाने के काबिल नहीं होगा। यह क्रियाएँ अच्छी नहीं, हमारे संस्कार के विरुद्ध है, यह हमारे जीवन के विरुद्ध हैं, ये हमारे धर्म के विरुद्ध है, इससे जीवन पतित हो जाएगा, मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकती’ यदि माँ ने उसे थोडा छिड़का होता, समझाया होता और दिशा दी होती तो लड़का भटकता नहीं। 

बहुत सारी माताएँ आजकल ऐसी होती है जो किशोरवय में अपने बेटे-बेटियों का पक्ष ले लेती है, अपने पति से उनकी हरकतों को छिपा डालती है और जब तक वह प्रकट होती है तब तक पानी सिर से निकल चुका होता है। फिर हाथ में कुछ नहीं होता चाहे दुर्व्यसनों का मामला हो, चाहे अफेयर्स के मामले हो या अन्य कोई भी कारण हो, यह बड़े झमेले वाले होते हैं, इसलिए इन पर बहुत गम्भीरता से विचार करना चाहिए।

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