किशोरावस्था में बच्चों को कुमार्ग पर चलने से कैसे रोकें?

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शंका

किशोरावस्था ऐसी अवस्था है जिसमें बच्चों के चरित्र का निर्माण होता है। लेकिन उस समय कुछ माता-पिता अपने बच्चों की गलतियों को नजरअंदाज कर उन्हें विनाश की ओर भेज देते हैं, उस समय उन्हें कैसे बचायें? आज एक घटना सामने आई है कि एक बेटे ने अपने माता-पिता की गोली मारकर हत्या कर दी। जिस माता-पिता ने पाल पोस कर इतना बड़ा किया है और जिनकी हत्या हुई वे खुद धार्मिक प्रवृत्ति के थे जिन्होंने १०८ जैन धर्म के बड़े ग्रन्थ लिखे। आज की युवा पीढ़ी धर्म की जड़ों से, संस्कारों से वंचित है। उनमें खाद-पानी कैसे डालें, उसे गुणवत्ता और संस्कार कैसे दें?

समाधान

मै एक घटना सुनाता हूँ। एक बच्चे ने १५ साल की उम्र में दोस्तों की संगति में शराब पी ली। स्कूली दोस्तों के साथ मिलकर शराब के नशे में अपने साथ की एक लड़की के साथ बदतमीजी भी करली। मामला पुलिस में पहुँच गया, पिताजी बड़े धर्मात्मा थे। पुलिस बच्चे को उठाने के लिए घर आई, स्कूल से भी उन तक सूचना आ गई। जैसे ही माता-पिता ने सुना कि पुलिस घर आई, पिता ने पुलिस को ₹५००० दिया और अपनी ओर से कहा बेटे को जितनी बेरहमी से पीट सको, पीटना ताकि दोबारा कभी ऐसी हिम्मत न करे। यह पिता का दृष्टिकोण, ऐसे कार्यों के प्रति सख्त होकर के कड़ा रुख अख्तियार किया। यह नहीं देखा कि मामला को रफा-दफा कर दो, मामला को दबा दो। ‘इसने गलती की, मेरे बेटे ने ऐसा अनैतिक आचरण किया, इसे ऐसी नसीहत दो कि सपने में भी याद न कर सके।’ यह एक तरीका है। हालाँकि, मैं मारपीट को पसन्द नहीं करता लेकिन कभी-कभी ठोकना भी जरूरी होता है। प्रारम्भ से यदि ऐसे संस्कार दिए जाएं तो यह नौबत ही न आए। 

दूसरा उदाहरण देता हूँ, एक माता पिता ने अपने बच्चे को बहुत अच्छे संस्कार दिए, प्रारम्भ से अच्छे संस्कार दिए। उन्हें आजादी भी दी, अंकुश भी दिया। शुरुआत में बच्चे को हर अच्छाई और बुराई का एहसास कराते रहे। उसे बता दिया कि तेरा criteria (मापदंड)) क्या होना चाहिए? तुझे कितना करना और क्या करना है? बच्चा भी ठीक था ढंग से अपने काम करता था। बच्चा बड़ा हुआ, २० साल की उम्र में एक दिन अपने दोस्तों के साथ नाइट शो पिक्चर जाने के लिए पिता से अनुमति चाही। अनुमति दे दी, दोस्तों के साथ बेटा गया तो पिता ने कहा ‘बेटा एक काम कर, एक चाबी तू अपने पास रख ले, बाहर से ताला लगा देना क्योंकि बारह बजे के बाद तू रात में आएगा, रात में हम लोगों को जगायेगा, क्या फायदा, तू आकर सो जाना।’ पिक्चर से लौट कर आया, घर के अन्दर आया, ११:३० बजे रात अपने पिता का दरवाजा खटखटाया, ‘पापा दरवाजा खोलो।’ बोले- ‘क्या बात है, तू आ गया?’ ‘हाँ आ गया पापा, दरवाजा खोलो, मुझे आपसे जरूरी बात करना है।’ ‘सुबह बात कर लेना बेटा।’ ‘नहीं मुझे अभी आपसे बात करना है, जरूरी बात करना है।’ पिता थोड़े घबराए, उन्होंने दरवाजा खोला, बाहर बदहवास सी हालत में बेटा खड़ा था, पिता के चरणों में गिर गया। ‘पापा मुझे माफ करना, पापा मुझे माफ करना, मुझसे बड़ी गलती हो गई।’ पिता ने पूछा ‘क्या गलती हो गई, क्या कर लिया तूने?’ ‘मैंने आज आपका भरोसा तोड़ दिया।’ ‘क्या हुआ?’ ‘पिक्चर देख कर लौट रहा था, दोस्तों के आग्रह पर मैंने पानी में १० बूँदें शराब की ले लीं और पी ली।’ ‘ये तो ठीक है, तू सुबह भी बता सकता था, चल १० बूँदें ही पी, ज़्यादा तो नहीं पी?’ बोला – ‘पिताजी सवाल १० बूँदों का नहीं, सवाल आपके भरोसे को तोड़ने का है, आपने मुझ पर भरोसा करके मुझे नाइट शो पिक्चर जाने की आजादी दी और मैंने आपसे ज़्यादा अपने दोस्तों को अहमियत दे दी। आज मेरा मन आत्मग्लानि से भर उठा, मेरा जी मुझे कचोट रहा है, आप मुझे माफ कर दो।’ यह संस्कार का उदाहरण है। कितने माँ-बाप हैं जो अपने बच्चों के संस्कारों के प्रति प्रतिबद्ध होते हैं। आप लोग बच्चों के अन्दर संस्कार जगाते नहीं, संस्कार थोपते हो और संस्कार थोपने के नाम पर केवल उन पर आर्डर और आदेश का आरोपण करते हो, यह करना, यह नहीं करना है। उनको यह करना और यह नहीं करना है कहने की जगह बेटा यह करना चाहिए और यह नहीं करना चाहिए की बात सिखाइए। अपने आप बच्चा जब प्रारम्भ से अपने अच्छे-बुरे का विवेक जगा लेगा, बड़ा होने पर उसे फिर कुछ कभी नहीं करना पड़ेगा। इसलिए हमें इस पर गम्भीरता से ध्यान देना चाहिए। 

दूसरी बात जो आज की घटना प्रकाश में आई, मुझे भी लोगों ने बताया एक जवान बेटे ने अपने माता और पिता दोनों की हत्या निर्ममता से कर दी, गोली मारकर के कर दी। कहने के लिए, जैन समाज के लिए बहुत बड़े कलंक की बात है और उस पिता के सन्तान ने की जो किसी ट्रस्ट का प्रमुख था, आपके कहे अनुसार ग्रंथों की भी रचना की। यह जो भी कृत्य है बड़ा गलत है, बच्चा तो इसमें दोषी है ही पर मैं ऐसी परिस्थिति के निर्मित होने में…। यद्यपि वह लोग चले गए, दोषी तो नहीं ठहरा रहा हूँ, लेकिन उनके अलावा आज के माता-पिता से जरूर कहना चाह रहा हूँ, आखिर बच्चे ऐसी स्थिति में जाते क्यों हैं इसका भी हमें ध्यान देना चाहिए? क्यों ऐसी स्थिति में गए? बाप-बेटे के बीच इतनी असहमति क्यों? अगर पिता धर्मात्मा है, तो बेटे के साथ इतनी तकरार क्यों? तकरार तो होनी ही नहीं चाहिए, उसका रास्ता निकलना चाहिए और अगर बेटा कहीं कोई गलत राह पर जा रहा है, तो एक रास्ता अपना-अपना तय कर लेना चाहिए, सुरक्षित दूरी बना लेनी चाहिए। पहले से प्रयास करना चाहिए कि बच्चा ऐसे करें ही नहीं। 

इसी प्रसंग में आप लोगों से एक बात और कहना चाहता हूँ आप चाहते हो कि आपकी सन्तान भी आपकी तरह धर्मात्मा बनी रहे तो मैं आपको एक सलाह देता हूँ अपने बच्चों को धर्म और धर्मगुरुओं से जोड़ कर रखिए। इसके साथ ही आप जो धार्मिक, सामाजिक कार्यक्रमों में अपनी भागीदारी रखते हैं, समय समय पर अपने सन्तान को भी अपने साथ सम्मिलित कीजिए ताकि आपके बच्चों को आपकी सामाजिकता का ज्ञान हो और इस बात का एहसास हो कि मेरे माँ-बाप का समाज में कौन सा स्थान है? मेरे माता-पिता का समाज में कौन सा स्थान है, यह बहुत जरूरी है। मैं देखता हूँ आज के जो खासकर उद्यमी टाइप के लोग हैं, समाज में आगे बढ़ रहे हैं, वह सारे लोग खुद आगे बढ़ते हैं पर अपनी सन्तान को नहीं लाते, सन्तान अपनी जिंदगी जीते हैं, ‘वो तो बिजी है, वो पढ़ रहा है, हॉस्टल में गया है, कोचिंग में गया, फिर जॉब कर रहा है।’ तो उनकी दुनिया अलग हो जाती है। उनको पता ही नहीं कि मैं किस बाप का बेटा हूँ। मेरे पिता का क्या स्थान है, मेरे पिता का क्या योगदान है? यदि आप समय-समय पर लाते रहेंगे और सन्तान को प्रोत्साहन मिलेगा तो अपने आप जुड़ेंगे। 

आपस में बाप-बेटे, पिता-पुत्र, माँ-बेटे के बीच संवाद जुड़ा होना चाहिए। आज संवादहीनता है, आपस में बात करने की फुर्सत नहीं है। सब अपने अपने कार्यों में व्यस्त हो जाते हैं इसलिए ये सारे के सारे दुष्परिणाम आते हैं और स्थिति अत्यन्त भयावह बन जाती है। इसलिए ऐसी भयावह स्थितियों से अपने आप को बचाना चाहिए, हमें सावधान होना चाहिए और यह जो आज दुर्घटना घटी है, दुर्घटना मतलब एक दुष्कृत्य हुआ है इसकी घोर निंदा करनी चाहिए। समाज के उन लोगों से मैं कहूँगा कि आप संकल्प लीजिए कि जीवन में कभी हम ऐसा नहीं करेंगे, न किसी को ऐसा करने देंगे। अपने हृदय में माता-पिता के प्रति सम्मान तो होना ही चाहिए।

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