समाज में संवेदनाएँ खत्म होती जा रही हैं। यदि हजार आदमी भूकंप में मर जाते हैं, तो भी इस बात को लोग एकदम आसानी से अपना लेते हैं। हम संवेदनाओं को वापस पुनर्जीवित करके के लिए क्या करें?
आपने यह बहुत गम्भीर बात उठाई है। संवेदनहीनता आज के युग की एक बहुत बड़ी समस्या बन गई है। इस संवेदनहीनता को बढ़ाने में जो सबसे बड़ा कारण बना है वह है बढ़ता हुआ उपभोक्तावाद। इस कंज्यूमरिज्म(उपभोक्तावाद) की प्रवृत्ति ने व्यक्ति को ‘व्यक्ति’ की तरह न लेकर चीजों की तरह लेना शुरू कर दिया।
आज काल एक और नया कंसेप्ट (अवधारणा) डेवलप(विकसित) हुआ है- यूज एँड थ्रो। ये यूज एँड थ्रो की अवधारणा उपभोक्तावादी सोच की देन है। इसने हमारी संवेदनाओं को सबसे ज़्यादा आघात पहुँचाया है। बढ़ता हुआ बुद्धिवाद, इसने भी हमारे अन्दर की संवेदनाओं को भाप बनाकर उड़ा दिया। इसे जगाने के लिए हमें अध्यात्मवाद और आत्मवाद को बढ़ाना होगा। जब तक व्यक्ति के हृदय में आध्यात्मिक परिवर्तन नहीं होता, उसकी सोच नहीं बदलती, उसके अन्दर की संवेदना नहीं जाग सकती। तो संवेदनशील होने के लिए अध्यात्मनिष्ठ होना जरूरी है। मैं यूँ कहूँगा कि एक सच्चा अध्यात्मनिष्ठ व्यक्ति ही सच्ची संवेदना का धनी होता है।
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