कुछ लोग कहते हैं आत्मा को शुद्ध देखो, वो त्रिकाल शुद्ध है|हम शुद्ध देखेंगे तो हम शुद्ध ही बन जायेंगे, अशुद्ध देखेंगे, तो अशुद्ध हो जायेंगे इसके बारे में आप क्या कहेंगे?
‘शुद्ध देखो’ और ‘शुद्ध बनो’ इसमें अंतर है ना| अपना लक्ष्य आत्मा के शुद्ध स्वरूप पर केंद्रित करो; इसका आशय या भाव यह है कि-जब भी तुम्हारे भीतर विकार आए तो तुम समझो मैं अपने स्वरूप से बाहर जा रहा हूँ, मैं अपने स्वभाव से भटक रहा हूँ; मुझे उधर नहीं जाना चाहिए; लौट चलो| मैं क्या हूँ? इसको पहचानो, यह मेरा स्वरूप है-यह जो मैं कर रहा हूँ,यह मेरे स्वभाव के विरुद्ध है, यह मेरे स्वरुप के विरुद्ध है,यह मेरे संसार का अविवर्धक है; ऐसा मुझे नहीं करना|” तो आत्मा के शुद्ध स्वरूप को देखने का मतलब-अपने आप को पहचानो की मैं हूँ क्या और कर क्या रहा हूँ, जैसे किसी अच्छे कुलीन व्यक्ति के लिए हमेशा इस बात का भाव बोध रखने की प्रेरणा दी जाती है, कि ‘तुम किस BACKGROUND के हो’ और यह प्रेरणा केवल इसलिए दी जाती है कि अपने उस BACKGROUND को समझते हुए ऐसा कोई आचरण ना करो जो तुम्हारी गरिमा अनुकूल ना हो|
ऐसे ही अध्यात्म शास्त्र में कहते हैं की सदैव अपने शुद्ध स्वरूप का चिंतन करो, शुद्ध स्वरूप को देखो, शुद्ध स्वरूप की तरफ लक्ष्य रखो ताकि जब भी तुम अशुद्ध होने लगो तो संभल सको|तो शुद्ध स्वरूप को देखने का सच्चा तात्पर्य यह है,पर जो लोग शुद्ध स्वरूप को देखो होते देखो,देखो कहने के बहाने अपने आप को अशुद्ध दशा में ही शुद्ध बनाने की मानने का भ्रम पाल लेते हैं ना वह शुद्ध होंगे ना बुद्ध, बुद्धू जरूर कहलाएंगे|
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