हम लोग विदेश में रहते हैं, हमारे माता-पिता भारत में हैं, बीमार हैं, सास-ससुर बीमार हैं लेकिन पति की जॉब भारत में नहीं हो पा रही है, तो वहाँ आने का उनका मन नहीं होता तो इस तरह की स्थिति से दिन-रात की नींद उड़ी रहती है, माता-पिता की सेवा नहीं कर पाते तो क्या करें?
ये बहुत बड़ी दुविधा है, माँ-बाप यहाँ हैं सन्तान बाहर। पहले तो अनेक सन्तानें होती थीं तो एक सन्तान के दूर हो जाने से कोई ज़्यादा फर्क नहीं पड़ता था, कोई न कोई सम्भाल लेता था। जब ऐसी दुविधा होती है, तो बड़ी मुश्किल आ जाती है।
मैं एक घटना सुनाता हूँ। भोपाल में एक डॉक्टर अरविंद भारिल्ल हैं जो पहले USA में थे, उनकी माँ व्रती थीं, अकेले रहती थीं। वे गिर पड़ीं, उनके कूल्हे की हड्डी टूट गई, जब उन्हें खबर मिली तो बेचैन हो गए। उनकी धर्मपत्नी जो एक डॉक्टर थी, वो आना नहीं चाहती थी। उन्होंने जॉब छोड़ दिया, कहा- ‘अगर मैं माँ की आखिरी स्थिति में सेवा नहीं कर सका तो मेरा जीना व्यर्थ है। सब पैक करके भारत आ गये और उन्होंने माँ की ऐसी सेवा की जो बड़ी दुर्लभ होती है, अपूर्व सेवा की, जो एक उदाहरण बन गया। देखना चाहिए कि माँ-बाप कितने बीमार हैं, अगर ज़्यादा अशक्त हैं और इस समय हमारी आवश्यकता है, तो सब काम छोड़ कर उसे priority (प्राथमिकता) देनी चाहिए।
अब रहा सवाल अकेले पत्नी के कहने से नहीं चलेगा, अकेले पति के कहने से नहीं चलेगा। यह जो concept (अवधारणा) है- ‘यह मेरी माँ है और यह तुम्हारी माँ है।’ सास के बीमार पड़ने पर पति की माँ दिखती है, माँ के बीमार पड़ने पर मेरी माँ दिखती है, यह भेद! किसी भी तरीके से उन्हें समझाने का प्रयास करना चाहिए और यदि ऐसा नहीं होता; कई बार प्रेक्टिकल नहीं होता, आज के समय में जॉब पाना और जॉब में टिके रहना बहुत कठिन है, तो उस समय ऐसा करना चाहिए कि कुछ time period (समय काल) के लिए दो में से एक को आ जाना चाहिए, ‘ठीक! आप यहाँ बच्चों को सम्भालो, अपनी जॉब सम्भालो, मैं अपना दायित्त्व निभा करके जल्दी लौट कर के आती हूँ क्योंकि इनको वहाँ ले जाना सम्भव नहीं और वहाँ से आना सम्भव नहीं।’ यह बड़ी कठिनाई है।
इसीलिए मैं कहता हूँ प्रतिभा का पलायन ठीक नहीं। कोशिश करनी चाहिए अपने देश में ही अपने लिए अच्छे अवसर तलाशने की, यदि आपको यहाँ अवसर मिलता है, तो बाहर जाने की जरूरत नहीं।
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