मैं श्वेतांबर जैन हूँ, आपके द्वारा किए जा रहे शंका समाधान कार्यक्रम को अत्यन्त आस्था के साथ सुनता हूँ। आपका दृष्टिकोण अत्यन्त व्यापक व समन्वयकारी है। कोटा, राजस्थान में अनेक वर्षों पूर्व जैनों में आपसी सामंजस्य बढ़ाने के लिए चातुर्मास में सामूहिक प्रवचनों का आयोजन किया गया था एवं सुगन्ध दशमी पर दोनों समुदाय एक दूसरे के मन्दिरों में जाकर मस्तक टेकते थे। वर्तमान समय की मॉंग है कि इस सामंजस्य को और व्यापक बनाया जाए, इस दिशा में कैसे आगे बढ़ा जा सकता है, कृपया मार्गदर्शन करें?
बात सही है हमारे जितने भी भेद हैं वे मन्दिर के भीतर हों, बाहर नहीं, चाहे कोई दिगम्बर हो, चाहे श्वेताम्बर हो, चाहे तेरापंथी हो, चाहे स्थानकवासी हो, दिगंबरों में चाहे तेरापंथी हो या बीसपंथी हो, यह सारे आपकी अपनी-अपनी आस्थाओं के अनुरूप है, जिसकी जो आस्था उसके अनुरूप चले, एक दूसरे की आस्था को आहत न करें और एक दूसरे के आस्था पर कुछ थोपने का प्रयास न करें।
मन्दिर में आपको जैसे रहना हो रहिए, बाहर निकलें तो हम केवल जैन हैं। आपने ये कहा कि कोटा में कभी ऐसा हुआ था कि सारे पर्यूषण पर्व, दस लक्षण पर्व, धूप दशमी आदि के त्योहार एक साथ मिलकर मनाये गए। हम मिलकर के त्योहार मनाएँ, अच्छी बात है; पर जब हम मिलें तो हमारे अन्दर त्योहार सा भाव हो, यह और अच्छी बात है। हम आपस में मिलें, इस तरीके से मिलें जैसे अपने से मिल रहे हैं। हमारे सारे फिरके अलग हों, हमारी धार्मिक मान्यताएँ अलग हैं लेकिन सामाजिक रूप में हम एकजुट हैं। यह कोई जरूरी नहीं कि आप सब त्योहार मिलकर ही मनाएँ। सबकी अपनी-अपनी मान्यता है, उसको मन्दिर के भीतर तक रखो लेकिन बाहर मिलें तो हम सब जैन हैं, यह दृष्टिकोण हमारा विकसित होना चाहिए।
पुष्कर मुनि जो श्वेताम्बर परम्परा के शायद स्थानकवासी सम्प्रदाय के महान साधक हुए, उनका एक संस्मरण मैंने पढ़ा जो उन्होंने चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांतिसागर जी महाराज जी के सन्दर्भ में लिखा। गुजरात में कहीं शांति सागर जी महाराज से उनका मिलना हुआ, मिलने के बाद उन्होंने शांति सागर जी महाराज से पूछा कि “हमारे बारे में आप क्या सोचते हो, आप हमें क्या मानते हो?” शांति सागर जी महाराज ने उनकी पीठ पर हाथ रखते हुए कहा “अपना भाई।” यह आदर्श है! यही दृष्टिकोण हमारा होना चाहिए, जिस दिन ऐसा दृष्टिकोण समाज में विकसित होगा, समाज बहुत उन्नति करेगा।
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