आज के युग के नवयुवक श्रावक अपने सांसारिक कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए अपना समय शुभोपयोग और शुद्धोपयोग में कैसे लगाएँ?
शुद्ध उपयोग तो गृहस्थों को सम्भव ही नहीं है। सामान्य मुनियों में भी शुद्ध उपयोग को वही पा सकता है, जो सर्वसंकल्प-विकल्प को त्यागकर आत्मा में लीन होता है। आचार्य कुन्द कुन्द ने शुद्ध उपयोग स्वरूप का वर्णन करते हुए बताया कि जो शुद्ध के उपयोग को अच्छी तरह जानता है, संयम और तप से युक्त है, राग रहित है, जो सुख और दुःख में समान बुद्धि रखता है वह शुद्ध उपयोगी होता है। वीतरागी मुनियों को ही शुद्ध उपयोग होता है। इसलिए शुद्ध उपयोग की गृहस्थ अवस्था में कल्पना ही नहीं की जा सकती है।
अब रहा सवाल शुभ उपयोग का, तो शुभ उपयोग को कैसे टिकाए रखें? अपनी बोल चाल की भाषा में कहें तो इसका अर्थ होता है-अपने विचारों को पवित्र कैसे बनाएँ रखें? शुभ भाव में अपने मन को कैसे रमाए रखें? ये आपके मन का सवाल है। आचार्य कुन्द कुन्द हम सब को बोलते हैं कि अपने मन को शुभ में रमाने का माध्यम है अशुभ से बचाना! अशुभ से बचा लो तो शुभ में रमोगे। इस माध्यम से भगवान की पूजा करो, सामायिक करो, जाप करो, ध्यान करो, स्वाध्याय करो, दान करो, व्रत उपवास आदि क्रियायें करो, जितना बन सके अपने आप को शुभ धार्मिक अनुष्ठानों में अनुरक्त रखो। एक ही लाईन में मैं कहना चाहता हूँ कि सत्कर्म में डूबोगे तो खटकर्म से अपने आप बच जाओगे! दुनिया के खट कर्म अशुभ हैं, इससे बचना है, तो सत्कर्म में डूबने को प्रयास करें। आप उस में जितना बन सके लगें, अपने आप को रमाएँ आप का कार्य सहज होता रहेगा।
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