जो बच्चे घर छोड़कर पढ़ने या सर्विस करने किसी अन्य नगर या विदेश जा रहे हैं, वे अपने परिवार, धर्म एवं संस्कारों से विमुख हो रहे हैं, उनके लिए क्या करना चाहिए?
‘जो – जो बाहर जा रहे हैं सब विमुख हो रहे हैं’- ऐसी बात तो नहीं है लेकिन बाहर जाने वालों में विमुखता बहुत अधिक है।
इसके लिए क्या करना चाहिए? इसके लिए आवश्यकता और अपेक्षा है कि हम लोगों के अन्दर जागरूकता लाएँ, बच्चे जब बाहर जाएँ तो उससे पहले उन्हें कुछ बातें समझाएँ, गुरुओं के पास लाकर उनको संकल्पबद्ध कराएँ। उन्हें बहुत मनोवैज्ञानिक तरीके से समझाया जाए ताकि वे आज के इस भटकाव भरे दौर में अपनी स्थिरता रख सकें, किसी तरह से भटकें नहीं। अगर ऐसा नहीं करते तो समय बहुत विकृत रूप लेता जा रहा है। बाहर भेजना, उच्च शिक्षा दिलाना मां-बाप की एक बहुत बड़ी मजबूरी है और बच्चों के कैरियर के लिए ज़रूरी भी है। लेकिन हमें इस बात को कभी नहीं भूलना चाहिए की career से बड़ा हमारा character (चरित्र) है। तो चरित्र भी व्यवस्थित बने रहे, संस्कार भी मजबूत बने रहें तभी हम ठीक ढंग से अपने जीवन को सँवार पाएँगे, समाज को संभाल पाएँगे तो उसके लिए गुरुओं के समक्ष संकल्पबद्ध होना चाहिए।
गांधी जी जब भारत से बाहर गए तब उनकी माँ ने बेचरदास जी दोषी, जो एक श्वेतांबर जैन साधु थे, उनसे तीन प्रतिज्ञा दिलवाई थीं- माँस नहीं खाना, शराब नहीं पीना, पर स्त्री सेवन नहीं करना। गाँधीजी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि ‘यदि मुझे ऐसी प्रतिज्ञा नहीं दिलाई गई होती तो मैं भ्रष्ट हो गया होता। मेरी माँ के द्वारा दिलाई गई प्रतिष्ठा ही मेरी जीवन की सुरक्षा का कवच बना।’ तो आज भी जो युवक-युवतियाँ बाहर जाते हैं, यदि वे संकल्पबद्ध हो कर के जाएँ तो इस तरह के भटकाव से बहुत अच्छे से बचा जा सकता है।
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