कभी-कभी संस्थाओं के सर्वोच्च पद पर रहते हुए कुछ कार्य ऐसे करने पड़ते हैं, जो हमारी नज़र में गलत हैं। फिर भी कार्यों की पूर्णता के लिए हमें कभी-कभी गलत कार्यों की भी अनुमोदना करनी पड़ती है। क्या इसके लिए जो सर्वोच्च पदाधिकारी है उसको पाप लगेगा?
सर्वोच्च पदाधिकारी होते हुए अच्छे या बुरे जो भी कार्य होते हैं उसका श्रेय उन पदाधिकारियों को जाता है। अब रहा सवाल गलत होने का, तो दो चीजें होती हैं। कुछ कार्य ऐसे होते हैं जो नीति से गलत होते हैं, दृष्टि से गलत होते हैं, पर उसका उद्देश्य सही होता है। पर कुछ कार्य ऐसे होते हैं जो नीतिबद्ध तरीके से सही हों, पर हमारी संस्कृति की दृष्टि से गलत होते हैं। इन दोनों चीजों में गलत को समझना चाहिए। जो कार्य नीतिबद्ध तरीके से गलत हो पर व्यावहारिक दृष्टि से सही हो तो हमें वहाँ तात्कालिक रूप से नीति को बदलने की सम्मति देने में कोई पाप नहीं है।
जैसे कहीं कोई निर्माण का कार्य हो रहा है। आपको ऐसा लग रहा है कि ये निर्माण कार्य जिस व्यक्ति को कान्ट्रेक्ट पर दिया गया है वो ठीक आदमी नहीं है। हो सकता है कि उसमें १ रूपये की जगह १ एक रुपये २० पैसे लग रहे हैं। और आप को लग रहा है कि इस समय मैं हस्तक्षेप नहीं करूँगा, तो इसका पाप मुझे तो नहीं लगेगा। लेकिन आप ये देखिए कि १ रुपया की जगह १ रुपये २० पैसे लगकर यदि वो पाँच साल का काम तीन साल में हो रहा है, तो समझ लीजिए कि १ रुपया २० पैसे की जगह ८० पैसा लगा। क्योंकि तीन साल बाद वो १ रुपया लगने वाला है। तो वहाँ गलत होकर भी चुप हो जाओ। परिणाम पर ध्यान रखो। इसलिए नीतिगत बात गलत होने पर भी व्यावहारिक बात सही है, तो आपको वहाँ मौन रहने से फायदा है। कौन कर रहा है ये मत देखो, कैसे हो रहा है ये मत देखो, क्या हो रहा है इस पर नजर रखो। रिजल्ट अच्छा होना चाहिए।
दूसरी बात, कुछ कार्य ऐसे होते हैं कि नीतिबद्ध तरीके से सही हैं पर उसका परिणाम समाज पर गलत पड़ रहा है। वो हमारी संस्कृति और परम्परा के विरूद्ध है, हमारी धर्म मर्यादा के विरूद्ध है। वो हमारी सामाजिक संहिता के विरूद्ध है। ऐसी जगह कभी चुप मत रहना। उसका पुरजोर प्रतिवाद करना। कोशिश करना उसे रोकने की और नहीं रोक पाओ और ऐसा लगता है कि मेरे रहते वह कार्य रूकना सम्भव नहीं है, तो अपने आप को अलग कर लेना। उस कार्य को सहमति मत देना; नहीं तो पाप के भागी बनोगे।
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