स्वर्ग-नरक होते हैं, आत्मा होती है, परमात्मा होती है, पर आजकल के बच्चे बोलते हैं कि ‘क्या आपने देखा है?’, वह अपनी आधुनिक जीवन शैली में मस्त रहते हैं। वह बोलते हैं कि ‘यह लोक मीठा तो परलोक किसने दीठा’ उन्हें जीवन की वास्तविकता से कैसे अवगत करवायें? ठोकर खाकर तो सभी सीखते हैं लेकिन ऐसा क्या करें कि वे ठोकर खाने से पहले ही संभल जाए? उन्हें आधुनिकता से आध्यात्मिकता की ओर कैसे हम झुकायें?
दूर के स्वर्ग और नरक की बात हम उनसे बाद में करें, बच्चों के इसी जीवन के स्वर्ग और नरक को दिखा दें। उनसे कहो- थोड़ा दृष्टि प्रसार कर देखो सड़क चलते तुम्हें बहुत सारे ऐसे आदमी मिल जाएँगे जिनकी भूख के मारे पीठ और पेट मिलकर एक हो गई है, तन ढकने को कपड़े नहीं है, सिर छुपाने को छत नहीं है, खाने को रोटी नहीं है, उस पर भी शरीर विकलांग है, हाथ कटे हैं, पाँव कटे हैं, उसके ऊपर दलित कुष्ठ है, मक्खियाँ भिन-भिना रही हैं, तन पर बैठी मक्खी को भगाने में भी वो असमर्थ हैं, समझ लो ये इस धरती का नरक है। दूसरी तरफ देखो, बहुत सारे मनुष्य ऐसे हैं जिनके पास सब चीजों की रेलमपेल है, गुलछर्रे उड़ा रहे समझ लो उस धरती का स्वर्ग भोग रहे हैं। सड़क चलते बहुत से ऐसे जानवर दिखाई पड़ेंगे जो एकदम मरियल टट्टू बने हुए हैं, उसके बाद भी उनके ऊपर वजन लदा हुआ है और कभी तुम्हें ऐसे कुत्ते भी घूमते मिलेंगे जो एयर कंडीशन कार में मस्ती से घूम रहे हैं, जिनकी सेवा के लिए लाख रुपए महीने का आदमी लगा हुआ है, समझ लो यही नर्क और स्वर्ग है।’
यहाँ इनकी दुःख और सुख की एक सीमा है, जिस स्तर का दुःख यहाँ है इसकी एक सीमा है इसको सहा जा रहा है। इतना दुःख है इससे आगे का भी दुःख हो सकता है, यही end नहीं है। इतना सुख है, इससे ऊपर का भी सुख हो सकता है, end तो नहीं है ना। समझ लेना इस लोक के चरम सुख को लोग यहाँ भोग सकते हैं, उससे ऊपर के सुख को भोगने के लिए स्वर्ग जाना पड़ता है। इस लोग के सहे जाने योग्य दुःख को हम भोग लेते हैं, उससे आगे के असहय दुःख को भोगने के लिए नरक जाना पड़ता है। बस, हम समझ ले तभी अपने आप को सम्भाल सकते हैं।
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