यदि पुण्य का भी क्षय होता है, तो हम पुण्य क्यों करें?
संसार में कुछ भी स्थिर नहीं है। क्षय हर एक चीज का होता है, पुण्य भी हमारा ध्येय नहीं। जब तक हमारे साथ पुण्य हैं, हम संसार में अटके हुए हैं। हमें संसार से पार होने के लिए पुण्य-पाप दोनों से ऊपर उठना होगा। जब तक पुण्य-पाप से ऊपर नहीं उठेंगे, तब तक हमारा कल्याण नहीं। भूमिका के अनुसार पुण्य की क्रियायें कुछ दिनों तक आलम्बनीय है। पुण्य हमारे संसार में या हमारे धर्म साधन में कुछ अंशों तक साधन भी है लेकिन हम पुण्य पर निर्भर करके चलेंगे तो भी मुक्ति नहीं मिलेगी, हमें दोनों से ऊपर उठना होगा। मोक्ष निष्कर्म होने का नाम है। पुण्य भी एक प्रकार का कर्म है जब तक है, वह अटकाएगा, फल देगा और फल भोग हमें के काल में उलझाएगा। यह उलझन, यह अटकाव हमें संसार में रोकेगा, उससे बचना जरूरी है। पुण्य हमारा ध्येय नहीं, पुण्य तो ये समझो कोई नाव चल रही हो, तो उस नाव को आगे बढ़ाने के लिए अनुकूल वायु है लेकिन मज़ा नाव के संसर्ग में नहीं, मज़ा पार होने में है। जब हमें पार होना है, तो दोनों को छोड़ना जरूरी है।
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