विधवा यदि शीलवान है, तो अमाँगलिक कैसे?

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शंका

प्राय: धार्मिक और सामाजिक कार्यों में विधवा औरत को अमांगलिक माना जाता है, चाहे उस के पुत्र की ही शादी हो, ये कहाँ तक उचित है?

समाधान

मेरी दृष्टि में सर्वथा अनुचित है। शास्त्रीय दृष्टि से मुझे कहीं भी मूल ग्रंथों में, जो हमारे प्राचीन मूल ग्रन्थ हैं उनमें कहीं ऐसा नहीं देखने को मिला। कुछ लोग हैं जो इस तरह का कार्य करते हैं। मेरी दृष्टि में तो अगर कोई स्त्री विधवा हो जाए, उसके बाद ब्रह्मचर्य व्रत को धारण कर ले, उसे एक शीलवती स्त्री की तरह देखना चाहिए, अमांगलिक दृष्टि से नहीं देखना चाहिये। उसको सम्मान देना चाहिए। एक स्त्री अगर विधवा हो जाती है लोग उसे अमंगल की दृष्टि से देखते हैं, इसका ही दुष्परिणाम है कि वह पुनर्विवाह के ओर झुकने लगती है। 

एक महिला आज से करीब १५ बरस पहले मेरे पास आई, उसने पुनर्विवाह कर लिया, बहुत धर्मात्मा थी। हमारी कुछ संहिता है, पुनर्विवाह स्त्रियों से हम लोग आहार आदि नहीं लेते। वह बहुत दुखी हुई, मैंने कहा तुमने किया क्यों? बोली ‘महाराज, क्या बताऊँ, जहाँ जाऊँ अमंगल की दृष्टि से देखी जाती थी, अपने आप को असुरक्षित महसूस करती थी, सोचा- चलो एक प्रपोजल आया, एक के साथ बन्ध जाऊँ, मुझे लगता है कि मैंने गलत किया।’ एक तरफ तो हम लोग चाहते हैं कि वह शील का जीवन जिए और दूसरी तरफ यह मानसिकता कि उसे हम अमंगल की दृष्टि से देखें, यह कतई उचित नहीं। 

किसी स्त्री का पति खोया तो उसमें उस स्त्री का क्या दोष? क्या उसने उसकी हत्या की? ये तो संयोग है और संयोग को संयोग के रूप में स्वीकारना चाहिए। हमारे यहाँ उसके बाद संन्यास है, वह आर्यिका बन सकती है, वह ब्रह्मचारिणी बन सकती है या घर में अपनी परिस्थिति को देखते हुए शीलव्रत का पालन कर सकती है, उसे पालने का अवसर देना चाहिए। मैं पूछता हूँ कोई स्त्री विधवा हो और आर्यिका बन जाए तो क्योंकि वे पति के जाने के बाद आर्यिका बनीं, उसको भी अमंगल मानोगे क्या? । नहीं, ये सब चीजें बहुत अच्छी नहीं है, मैं खुद इन बातों को बिल्कुल महत्त्व नहीं देता। मेरे सामने तो कई बार ऐसे प्रसंग आए, इसमें अवसर दिया। हमने कहा एक परिवर्तन आना चाहिए, सुधार होना चाहिए। जब तक हम उन्हें सम्मान नहीं देंगे, उनके जीवन के सम्मान को सुरक्षित नहीं करेंगे, तब तक हमें स्वस्थ परम्परा के सूत्रधार नहीं बन सकेंगे, हमें परिवर्तन करना चाहिए।

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