यदि किसी जीव को एक बार सम्यक् दर्शन हो जाता है, तो क्या वह आगे के भव में सम्यक् दृष्टि ही बना रहता है?
सम्यक् दर्शन का हाल बहुत विचित्र है। सम्यक् दर्शन होता है लेकिन आगे के भव में सम्यक् दर्शन टिके रहने की बात बहुत दूर की है; एक जन्म में भी टिके रहे इसकी कोई गारंटी नहीं है। अन्तर्मुहूर्त में सम्यक् दर्शन होता है और बंध होता है। इधर सम्यक् दर्शन हुआ, उधर मित्थ्या दर्शन; यानी अन्तर मुहूर्त के अन्तराल में सम्यक् दर्शन हो सकता है- होता है और छूटता रहता है। इसलिए केवल सम्यक् दर्शन के भरोसे रहोगे तो उद्धार नहीं होगा।
सम्यक् दर्शन सुरक्षित बनाए रखने के लिए क्या करना होगा? चारित्र को अंगीकार करो। चारित्र को समझो। चारित्र अंगीकार नहीं करोगे तो सम्यक्त्व टिकता नहीं है, होकर छूट जाता है। चारित्र के सन्दर्भ में आगम में बताया है कि कोई मुनिराज यदि भाव लिंग के साथ संयम ग्रहण करे तो ३२ भव से ज्यादा नहीं; इस पूरे संसार काल में बत्तीस भव से अधिक नहीं। और सम्यक् दर्शन की बात पूछो तो पल्योपम के असंख्यात भाग वर्ष काल तक यानि असंख्यातों बार ग्रहण करके छोड़ा जा सकता है। इसलिए हमें अमृत चंद्र जी की इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि,
“तत्वार्थे सिद्धाने निर्युक्तम् प्रथममेव मित्थ्यात्वम्”……..
ये हमारे तत्त्वार्थ के अश्रद्धान का पहला कारण मिथ्यात्व है, और दूसरा कारण सम्यक् दर्शन को चुरा लेने वाले चार कषाय। ये क्रोध, मान, माया व लोभ कषाय हमारे सम्यक्त्व को खण्डित करते हैं, विनष्ट करते हैं। कषायों को कम करना व कषायों को जीतना बहुत जरूरी है और कषायों को जीतने के लिए संयम ही एक मात्र साधन है।
Leave a Reply