हम लोगों ने मन्दिर के दर्शन का नियम लिया हुआ है, मन्दिर के दर्शन के बिना कुछ नहीं लेते। कहीं कभी ऐसी जगह जाना पड़ता है, जहाँ मन्दिर नहीं हो तो वैसे स्थिति में क्या करें? कैसे करें?
अगर मन्दिर के दर्शन का नियम है, तो पहला प्रयास करो कि ऐसी जगह जाओ ही नहीं कि जहाँ मन्दिर न हो, वहाँ हम जाएँगे ही नहीं खूब घूम लिए, बचपन तो बचा नहीं। तो पहला प्रयास करो कि जहाँ मन्दिर नहीं हो, वहाँ हम जाएँ ही नहीं, तो समस्या हल हो जाएगी।
‘अगर महाराज जाना जरूरी ही हो, तो क्या करें?’ मैं एक घटना सुनाता हूँ। १९९३ में गुरुदेव बीनाबारा में विराजमान थे। वहाँ कोलकत्ता के एक सज्जन सुमेरजी चूड़ीवाल गुरु चरणों में पहुंचे। उन्होंने निवेदन किया कि ‘गुरुदेव मुझे १५ दिनों के लिए अमेरिका जाना है। बहुत जरूरी काम है। नहीं जाऊँगा, तो बहुत बड़ा नुकसान होगा।’ आचार्यश्री ने कहा – भाई सेठ साहूकार देश-विदेश तो जाते ही रहते हैं। मैं क्या कहूँ उसमें? ‘महाराज, मैं एक समस्या लेकर आया हूँ मुझे जाना है लेकिन मेरे नित्य अभिषेक-पूजन का नियम है। वहाँ क्या करूँ? १५ दिन जाना जरूरी है और बिना अभिषेक के भी नहीं रह सकता।’
तो महाराज ने कहा ‘देखो सेठ साहूकार पहले भगवान को अपने साथ ले जाते थे, ले जाओ।’ ‘महाराज ले जा सकते हैं?’ बोले ‘हाँ, ले जा सकते हो। ले जाओ।’ बोले ‘ऐसा करना, अपने साथ चल प्रतिमा ले जाना, ५ इंच तक की छोटी-सी प्रतिमा। और एक विनय पूर्वक एक अच्छा उसके लिए बॉक्स बनाकर के, संदूक बनाकर के विनय के साथ सोले में रखकर के उसे ले जाना।’ ‘महाराज अभिषेक कैसे करेंगे, वहाँ पानी उपलब्ध नहीं होगा तो?’ उन्होंने कहा – ‘ठीक है ऐसी स्थिति में अगर अभिषेक नहीं भी करो तो सूखे कपड़े से प्रक्षाल करके काम चला लेना।’
वो गए, उन्होंने अपना काम किया। उन्हें आशातीत सफलता मिली। लौट कर आए, गुरु चरणों में कृतज्ञता प्रकट करने के लिए उन्होने कहा कि ‘गुरुदेव आपकी कृपा से यह काम हमने अच्छा कर लिया। बस हमसे एक गलती हो गई जब अभिषेक का वक्त आया, तो जल नहीं मिला और सूखे कपड़े से मन नहीं लगा, तो हमने अंगूर का जूस निकालकर के अभिषेक कर लिया। इस में कुछ गलती हो तो प्रायश्चित्त प्रदान करें?’ आचार्यश्री ने कहा ‘तुम्हारी भावना इतनी विशुद्ध थी, इसमें कोई प्रायश्चित्त की वैसी बात नहीं है।’ आज भी वह जब भी जाते हैं तो लेकर जाते हैं और उन्होंने बताया कि एयरपोर्ट पर जब पूरा चेकिंग होता है, तो मैं खुद सोले के कपड़े पहन कर के लोगों को दिखाता हूँ और बड़े विनय पूर्वक लेकर के जाता हूँ।
तो अगर ऐसी व्यवस्था बन जाए तो किया जा सकता है। जैसे अभी डॉक्टर पांडा ने अपने यहाँ विवाह के कार्यक्रम में किया। मुंबई में एक बड़े रिसोर्ट में उनका विवाह का कार्यक्रम था। ३ दिन के लिए, सुविधा जहाँ थी, वहाँ भगवान का चैत्यालय बनाया, पूरी शुद्धि के साथ और धर्म ध्यान किया है। अगर यह परिपाटी करी जाए इसमें कुछ भी गलत नहीं है।
Leave a Reply