शास्त्र में चार पुरुषार्थ बताए गये हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। आज अर्थ और काम की बहुलता होने के कारण हम मोक्ष पुरुषार्थ कैसे प्राप्त करेंगे?
बिल्कुल ठीक प्रश्न आपने पूछा है शास्त्रों में चार पुरुषार्थ की चर्चा आती है, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। वर्तमान युग अर्थ और काम के बाहुल्य से भरा युग है और इसमें अनेक प्रकार की विसंगतियाँ और विडम्बनाएँ प्रकट हो रही हैं।
चार पुरुषार्थ हैं, इन्हें ऐसे समझें जैसे किसी मकान की नींव होती है और उसका शिखर होता है। धर्म पुरुषार्थ हमारे जीवन महल की नींव है और मोक्ष पुरुषार्थ उसका शिखर है। बीच का जो हिस्सा है वह अर्थ और काममय है। नींव मजबूत रहने पर भवन मजबूत रहता है। कमजोर नींव का महल चाहे कितना भी सुन्दर क्यों न हो, आकर्षक हो सकता है पर सुरक्षित नहीं। जिस मनुष्य की धर्म निष्ठा कमजोर हो चुकी होती है वो मनुष्य जीवन में कभी सफल नहीं हो पाता है। इसलिए हमें चाहिए कि हम लोगों को यह बात समझाएँ कि धर्म हमारे जीवन का मूल है, बुनियाद है, उसे हम भूलें नहीं, नींव को सुरक्षित रखें और मोक्ष को लक्ष्य बनाकर आगे बढ़ें। अर्थ और काम का आश्रय लेने का निषेध हमारे यहाँ नहीं है लेकिन ये कहा गया है कि “धनार्जन करो अनर्थ मत करो। काम का आश्रय लो पर कामांध मत बनो।”
चार पुरुषार्थों में धर्म, अर्थ, काम-ये तीन पुरुषार्थ का ही उपदेश दिया गया। मोक्ष पुरुषार्थ निर्वृत्ति के मार्ग में मिलता है और ये निवृत्ति मुनियों के मार्ग में आती है। गृहस्थ के लिए धर्म, अर्थ और काम ये तीन ही पुरुषार्थ का उपदेश है और इसको त्रिवर्ग की संज्ञा दी गयी। शास्त्रकारों ने लिखा है कि “धर्म, अर्थ काम इन तीन पुरुषार्थों के सम्यक रूप से अनुपालन किये बिना मनुष्य का जीवन पशुओं की तरह निरर्थक हो जाता है” और उसमें भी धर्म को सबसे ज़्यादा महत्त्व दिया जाता है क्योंकि धर्म के आलम्बन के अभाव में अर्थ और काम पुरुषार्थ संज्ञा को प्राप्त नहीं करते। इसलिए अर्थ का उपार्जन करें, अनर्थ से बचते रहें। काम का आश्रय लें लेकिन अपने जीवन में मर्यादाओं का पालन करते रहें। ये दोनों बातें हमें धर्म सिखाता है। जो लोग अर्थ के पीछे पागल होते हैं धर्म को भूल जाते हैं, उनके जीवन में अनर्थ घटित होने लगता है। आज आये दिन जो समाचार हम सब को मिलते हैं कि पैसों के पीछे पागल इंसान स्तरहीन होकर जीवन जीता है और उसके कैसे भयानक दुष्परिणाम आते हैं, वो हमारे चिन्तन के लिए पर्याप्त हैं।
इसलिए लोगों को चाहिए कि ये बात समझें कि धर्म के नियंत्रण में अर्थ का उपार्जन करें। पैसा कमाने का निषेध नहीं, पर पैसों के पीछे पागल होने का निषेध है। धर्म का यदि नियंत्रण होगा तो व्यक्ति अनीति और अन्याय से पैसों का उपार्जन नहीं करेगा और अपने जीवन में पैसा कमाने के लिए पागल नहीं होगा। धर्म हमें एक मर्यादा का रास्ता बताता है नीति पूर्वक, न्याय सहित जीवन जीने हमें ये सिखाता है कि धन हमारे जीवन के निर्वाह का साधन है साध्य नहीं। साधन को साध्य बना लोगे तो तुम अपने जीवन को दुःखी कर डालोगे। इस मर्यादा को समझो।
हमें वो कहानी हमेशा याद रखनी चाहिए जो हमने बचपन में सुनी है। राजा मिडास सोने के पीछे पागल था और उस सोने ने उसके जीवन को ही खराब कर दिया। पैसों की जीवन में एक सीमा तक उपयोगिता है पर पैसा ही जीवन का सर्वस्व नहीं है, जीवन का तत्त्व पैसों से ऊपर है और ये वही समझ सकता है जिसके जीवन में धर्म की निष्ठा जागृत होती है। अपनी कमजोरी को दूर कर पाने व अपनी सन्तति के विकास के लिए गहस्थ को काम का आश्रय लेने की भी छूट दी गयी है, लेकिन ये बात साथ में जोड़ी गयी कि पूर्णता काम में नहीं, संयम में है। कामना से काम का अन्त नहीं किया जा सकता। संयम से ही काम पर नियंत्रण लाया जा सकता है। इसलिए काम पर लगाम होनी चाहिए, धर्म का नियंत्रण होना चाहिए। इसका तात्पर्य यही है कि जो हमारी सामाजिक, नैतिक मर्यादाएँ है, सीमाएँ हैं उनके भीतर रहकर सादा व सन्तोष का पालन करते हुए जीवन जिएँ, जो व्यक्ति ऐसा संयम रखकर जीवन जीता है, तो सारी जिंदगी सुरक्षित रहता है। जो इस संयम की मर्यादा को तोड़ते हैं और कभी किसी चक्कर में फँसते है, तो सारा जीवन बर्बाद हो जाता है। व्यक्ति को इस बात को गहरायी से समझने की जरूरत है। आपको अपने दिल दिमाग में स्थापित करके रखने की आवश्यकता है कि “मेरा जीवन तभी सधेगा जब मैं अर्थ और काम पर धर्म का नियंत्रण रखूंगा।”
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