सम्यक ज्ञान के आठ अंग में शब्दाचार में उच्चारण की महत्ता बताई है। वैसे तो बताया जाता है कि भावशुद्धि ही मुख्य है, तो उच्चारण के मुख्यता क्यों? वैसे मंत्रों में तो शब्दाचार की मुख्यता समझ आती है, मगर स्तुति को तो हम अपनी स्थानीय भाषा में भी पढ़ सकते हैं या नहीं ?
भगवान का नाम तो किसी भी भाषा में ले लो, कोई दिक्कत नहीं, क्योंकि भगवान का गुणानुवाद, भगवान की भक्ति, शब्द प्रधान नहीं भाव प्रधान होती है। इसलिए भाव से भर कर आप कोई भी शब्द का उच्चारण करो, चलेगा।
एक बार एक युवक ने मुझसे पूछा कि-“महाराज जी सारी स्तुतियां संस्कृत में लिखी है, संस्कृत की स्तुति पढ़ने में ही फल मिलता है क्या? हिंदी की में नहीं मिलता क्या? भगवान हिंदी नहीं जानते ?” अरे भैया! भगवान सब भाषा जानते हैं और भगवान के लिए तुम्हारे शब्दो की कोई आवश्यकता नहीं। स्तुति भाव प्रधान होती है, शब्द प्रधान नहीं। अब रहा शब्दाचार या तदुभ्याचार; आप किसी भी ग्रंथ को पढ़ें, किसी भी भाषा में पढ़ें, उसका उच्चारण शुद्ध रखें। यदि आप उच्चारण शुद्ध नहीं करते तो आप उसका अर्थ बोध नहीं कर सकते; हां, जिनको कुछ नहीं आता वह कुछ भी पढ़ लें, ‘आनम् तानम कछु न जानम’ उनका कल्याण हो जाएगा। लेकिन जिनको आता है और वो उच्चारण में लापरवाही बरतते हैं तो यह जिनवानी के प्रति उनके अविनय का द्योतक है। इसलिए जिनवाणी के प्रति विनय का भाव हो, सम्मान का भाव हो, तो तुम पढ़ने की शुद्धता कोशिश करो। लेकिन हां, कुछ लोगो को बहुत कठनाई होती है और आजकल ज्यादा होने लगी; अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई होने के कारण हिंदी को भी ठीक ढंग से बोल नहीं पाते! अब राम का रामा हो गया, योग का योगा ! अर्थाचार का अनार्थाचार तो होना ही है, फिर संस्कृत का क्या होगा!
तो सीखिए, जहां तक बने सीखने की कोशिश करें और उसको शुद्ध तरीके से पढ़ें। जो जिस भाषा का शब्द है अगर आप उसे उसी भाषा में पढ़ेंगे, ये जिनवाणी का विनय है। इसलिए इसे सम्यकज्ञान के अंग में रखा गया। यद्यपि आप भाषांतर में रूपांतरित करके किसी ग्रंथ को पढ़ते हैं तो उसको भी आप शुद्ध पढ़ सकते हैं। बस दिक्कत तब होती है कि कुछ शब्द ऐसे होते हैं जिनका अनुवाद संभव नहीं होता और शब्दों का जब शब्द के अनुसार अनुवाद कर दिया जाए अर्थ के अनर्थ हो जाते हैं। ऐसे अनुदित कृतियों को पढ़ने में मजा नहीं, जैसे एक किताब में मैंने पढ़ा क्षायिक सम्यक दर्शन के लिए लिखा, destructive right belief! यह बड़ा खतरनाक हो गया। यह सब चीजें हैं जहां भाषा की सीमा होती है और अनुवाद करने वाले सिद्धांत की गहराई को छुए बिना जब अनुवाद करना प्रारंभ कर देते तो गड़बड़ होता है। आप अपने बेटे शिरिष से कहिएगा कि अपने संस्कार को जगाए और यथा सम्भव शुद्ध उच्चारण का ख्याल रखे ।
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