व्रत-त्याग और समाधि-सल्लेखना का महत्त्व
“अंत मता, सो गता!” ये कहावत है। निश्चित ही यह प्रश्न उठता है कि जीवन भर की साधना अंत की विराधना से व्यर्थ हो जाती है क्या?
मैं एक सवाल करता हूं, साल भर पढ़ाई करने वाला विद्यार्थी, ऐन परीक्षा के वक्त स्कूल न जाए तो उसका क्या होगा? पास हो पाएगा क्या? पास नहीं हो पाएगा। जीवन भर साधना की, आखिरी में उसकी विराधना की, तो तुम्हारी साधना का वांछित परिणाम तुम्हें नहीं मिलेगा। मरणांत समय के परिणामों का बड़ा महत्व होता है। इसलिए अंत को सुधारना चाहिए, और रहा प्रश्न कि “क्या अंत बिगड़ा तो जीवन भर की साधना व्यर्थ हो गई?” तो व्यर्थ नहीं होगी; वह पुण्य तो रहेगा लेकिन उसी रूप में परिवर्तित हो जाएगा। जैसे एक व्यक्ति ने जीवन भर पुण्य का कार्य किया, अन्त में मायाचारी कर ली; तो फिर क्या होगा कुत्ता बनेगा, बिल्ली बनेगा और कोई बड़ा पशु बनेगा। कुत्ता बन करके, उसके पुण्य के प्रभाव से किसी धनवान के घर का कुत्ता बनेगा। उसके आगे पीछे १० – २० नौकर-चाकर घूमेंगे।
मैं उत्तर भारत से विहार करते हुए आ रहा था। ग्वालियर और सोनागिर के बीच में एक स्थान है-टेकनपुर छावनी! वहां भारत का सबसे बड़ा श्वान-प्रशिक्षण केंद्र है।वहां की गेस्ट हाउस में हमारा विश्राम था। पता चला कि यहां कुत्ते हैं और उनके SP-DIG-IG की रैंक है, उनको सैलरी मिलती है, रिटायर होने के बाद पेंशन मिलती है। मेरे साथ के युवकों ने कहा-“महाराज! इन कुत्तों का बड़ा पुण्य होगा।” मैंने कहा- “हाँ! पुण्य निश्चित होगा। लेकिन मरते समय थोड़ी सी माया-चारी कर ली तो कुत्ता बनकर SP-DIG-IG बने; ठीक रहते तो सच के SP-DIG-IG बनते”।
हमारे पुराणों में एक सेठ की कथा आती है, इस सम्बन्ध में कि अंत में अपना मन खराब करने का परिणाम क्या आता है! सेठ जी ने सामायिक करने का नियम लिया; “मैं सामायिक करूंगा” सामने दीप जलाया और यह तय किया कि- “जब तक यह दीप जलेगा तब तक मैं सामायिक करूँगा।” उसकी पत्नी ने सोचा कि -“अच्छा अनुष्ठान कर रहे हैं, तो इनके अनुष्ठान में बाधा ना आये।” इस दृष्टि से बार-बार दीपक में तेल घटे तो और तेल डाल देती थी। सेठ जी सोचें -“दीपक बुझे तो मैं उठूं” और सेठानी है कि तेल डालती जाये तो दीपक बुझे कैसे! संकल्प तो नहीं तोड़ा उनके अंदर प्यास से बढ़ गई, गर्मी का समय होगा और पानी की प्यास के साथ में मरे। वो सेठ मरकर अपनी ही घर की बावड़ी में मैढ़क बन गया।
जीवन भर की साधना, आर्त्र -ध्यान के परिणाम स्वरूप उसका पतन हो गया। पाप ने मेढ़क बनाया, आर्त्र -ध्यान ने मेंढक बनाया, लेकिन उसका पुण्य आया तो पत्नी के निमित्त से बावड़ी से बाहर निकल गया। बावड़ी से बाहर निकलने के बाद उसको अपना आत्मज्ञान हो गया कि-“मैंने कैसे धर्म की विराधना करके अपना पतन किया; काश! मैंने ठीक ढंग से, संक्लेष मुक्त होकर धर्म ध्यान किया होता तो आज मैं जल का कीट नहीं बनता।” उसे मालूम पड़ा कि भगवान महावीर का समोशरण राजगीर में आया हुआ है, २५०० वर्ष पुरानी घटना है ज्यादा पुरानी नहीं, तो उसके वे पूजा के संस्कार, वे भक्ति के भाव फिर से जागृत हो गए। पुराना पुण्य उसके पृष्ठ में था जिसके कारण मेढ़क के अंदर वे सारे संस्कार जागृत हो गए। उन संस्कारों के परिणाम स्वरूप उसने अपने मुंह में कमल की छोटी सी पंखुड़ी लेकर फुदक फुदक कर भगवन की आराधना के लिए बढ़ना शुरू गया। जाते जाते रास्ते में राजा के सैनिक के हाथी के पांव के नीचे आ गया। मेढ़क के शरीर से भले नहीं पहुंच पाया पर साक्षात देवता बनकर के पहुंच गया और आप महावीराष्टक में आज तक बोलते हैं- श्लोक-
यदचर्चा भावेन प्रमुदित मना दर्दूर इह,
क्षणादासीत्स्वर्गी गुण गण समृद्व: सुख निधिः।
लभन्ते सद् भक्ताः शिव सुख समाजं किमु तदा ,
महावीर स्वामी नयन पथ गामी भवतु मे।।
पूरे प्रसंग के सार में मैं कहता हूँ, धर्म का कार्य पूरे उत्साह के साथ करो, प्रतिपल सावधान रहो; प्रतिक्षण को अपने जीवन का अंतिम क्षण मानकर चलो, ताकि क्षण क्षण सावधानी रह सके; और अन्त तक अच्छे से रहने की कोशिश करो। किन्तु इस भय से कि-“अन्त में बिगड़ना है, अभी से सम्भालने की क्या जरूरत? अंत में सम्भाल लेंगे” ध्यान रखना जो ढंग से जीते हैं वही ढंग से मर पाते हैं। जिनकी जिंदगी में बेढंगी होती है, उनकी मौत भी बेढंगी होती है। इसलिए ढंग से जियो, ताकि मर कर अपने जीवन का उद्धार कर सको; और फिर भी अगर आखिरी में कोई देव योग से तुम्हारे परिणाम बिगड़ भी जाए तो जीवन भर का जो पुण्य है वह व्यर्थ नहीं जाएगा, कहीं ना कहीं तो काम आ ही जाएगा।
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