अन्तिम समय के परिणाम महत्त्वपूर्ण क्यों?

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शंका

कोई जीव अपने पूरे जीवन में व्रत-नियम पाले और मरते समय कोमा में चला जाए तो क्या उसकी सारी तपस्या निरर्थक हो जाएगी? जैन धर्म में समाधि मरण, सल्लेखना को यानि अन्तिम समय को इतना महत्त्व क्यों दिया गया है?

समाधान

‘अन्त मता सो गता’ ये कहावत है लेकिन निश्चित यह प्रश्न उठता है कि जीवन भर की साधना अन्त की विराधना से नष्ट हो जाती है क्या? मैं आपसे सवाल करता हूँ कि साल भर पढ़ाई करने वाला व्यक्ति ऐन परीक्षा के वक्त स्कूल न जाए उसका क्या होगा? पास हो पाएगा क्या? नहीं हो पाएगा। जीवन भर साधना की और आखिर में उसकी विराधना की, तुम्हारी साधना का वांछित परिणाम तुम्हें नहीं मिलेगा। मरणांत समय के परिणामों का बड़ा महत्त्व होता है, बड़ा प्रभाव पड़ता है, इसलिए अन्त को सुधारना चाहिए। 

क्या अन्त बिगड़ा तो जीवन भर की साधना व्यर्थ हो गई? व्यर्थ नहीं होगी, वह पुण्य तो रहेगा लेकिन उसी रूप में परिवर्तित हो जाएगा जैसे एक व्यक्ति ने जीवन भर खूब पुण्य का कार्य किया और अन्त समय मायाचारी कर ली तो फिर क्या होगा? कुत्ता बनेगा, बिल्ली बनेगा और कोई बड़ा पशु बनेगा और कुत्ता बन करके उसका पुण्य क्या करेगा? किसी रईस के घर का कुत्ता बनेगा, उसके आगे पीछे १०२० नौकर-चाकर घूमेंगे। 

मैं विहार करते हुए आ रहा था, उत्तर भारत से तो ग्वालियर और सोनागिर के बीच में एक स्थान है टेकनपुर छावनी, भारत का सबसे बड़ा श्वान प्रशिक्षण केंद्र। वहाँ के गेस्ट हाउस में हमारा विश्राम था। पता चला कि यहाँ कुत्ते हैं और उनकी एसपी, डीआईजी, आईजी की रैंक है, उनको सैलरी मिलती है, पेंशन मिलती है, रिटायर होने के बाद। मेरे साथ के युवकों ने कहा ‘महाराज इन कुत्तों का तो बड़ा पुण्य होगा’। निश्चित पुण्य किया लेकिन मरते समय थोड़ी सी मायाचारी कर ली तो कुत्ता बनकर एसपी, आई. जी., डी. आई. जी. बने। अगर वह ठीक रहते तो सच के एस. पी., आई.जी., डी.आई.जी बनते, यह स्थिति बनती। 

अन्त में अपना मन खराब करने का परिणाम क्या आता है इसके विषय में हमारे पुराणों में एक सेठ की कथा आती है। एक श्रेष्ठी ने नियम लिया सामायिक करने का। उसने सामने दीप जलाया और यह तय किया कि जब तक यह दीप जलेगा तब तक मैं सामायिक करूँगा। उसकी पत्नी ने सोचा कि अच्छा अनुष्ठान कर रहे हैं, उनके अनुष्ठान में बाधा न हो जाए तो बार-बार तेल घटे तो तेल डाल दे। ये सोचें कि ‘दीपक बुझे तो मैं उठूँ’ तो वो तेल डाल दे। अब वो दीपक बुझे कैसे? संकल्प तो नहीं तोड़ा लेकिन उनके अन्दर प्यास बढ़ गई। गर्मी का समय रहा होगा और पानी की प्यास के साथ वह मरे। वह सेठ मरा और अपने ही घर की बावड़ी में मेंढक बन गया। जीवन भर साधना की, किन्तु आर्त्र ध्यान के परिणाम स्वरूप उसका पतन हो गया। आर्त्र ध्यान ने मेंढक बनाया, लेकिन जब उसका पुण्य आया तो उसकी अपनी ही पत्नी के निमित्त से बावड़ी से बाहर निकल गया। बावड़ी से बाहर निकलने के बाद उसको अपना आत्मज्ञान हो गया कि मैंने कैसे धर्म की विराधना करके अपना पतन किया। काश मैंने ठीक ढंग से धर्म ध्यान किया होता, संक्लेशमुक्त होकर तो आज मैं जल का कीट नहीं बनता। उसे मालूम पड़ा कि भगवान महावीर का समवसरण राजगृही में आया हुआ है। २५०० वर्ष पुरानी घटना है, ज़्यादा पुरानी नहीं। तो उसका ह्रदय, वो पूजा के संस्कार, वो भक्ति के भाव फिर से जागृत हो गये। वो पुराना पुण्य उसके backing (साथ) में था जिससे एक मेंढक के अन्दर वह सारे संस्कार जागृत हो गये। उसके परिणाम स्वरुप अपने मुँह में उसने एक कमल की छोटी सी पंखुड़ी लेकर फुदक-फुदक कर भगवान की आराधना के लिए बढ़ना शुरू किया, वह जा रहा था, रास्ते में राजा श्रेणिक के हाथी के पाँव के नीचे आ गया। मेंढक के शरीर से भले नहीं पहुँच पाया पर साक्षात् देवता बनकर के पहुँच गया। आप महावीराष्टक में बोलते हैं –

यदर्चा भावेन प्रमुदित मना दर्दुर इह,

क्षणादासीत्स्वर्गी गुण-गण-समृद्ध: सुख-निधि:।

   लभन्ते सद्भक्ता: शिव-सुख-समाजं किमु तदा,

महावीर-स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे।।

पूरे प्रसंग के सार में मैं कहता हूँ धर्म का कार्य उत्साह से करो, प्रतिपल सावधान रहो और हर क्षण को अपने जीवन का अन्तिम क्षण मान कर चलो ताकि क्षण-क्षण सावधानी रह सके और अन्त तक अच्छे से रहने की कोशिश करो। लेकिन इस भावना से कि अन्त में बिगड़ना है, तो अभी से संभालने की क्या जरूरत है, अन्त में सम्भाल लेंगे, तो ध्यान रखना जो ढंग से जीते हैं वही ढंग से मर पाते हैं। जिनकी जिंदगी बेढंगी होती है उनकी मौत भी बेढंगी होती है, इसलिए ढंग से जियो। अपने जीवन का उद्धार कर सको और फिर भी आखिरी में कोई दुर्योग से तुम्हारे परिणाम बिगड़ भी जाए तो जीवन भर का जो पुण्य है, व्यर्थ नहीं जाएगा, कहीं न कहीं तो काम आ ही जाएगा।

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