एक जगह पढ़ा कि बुद्धिमान लोग निश्चय को छोड़कर व्यवहार में प्रवृत्त नहीं करते’ और आगे उसमें यह भी लिखा कि व्यवहार के बिना निश्चय सम्भव नहीं है। पं. आशाधर जी ने के कहा कि ‘ यदि तू जिन मत में प्रवृत्त करता है, तो निश्चय और व्यवहार दोनों को ही मत छोड़’ कुछ समझ में नहीं आता।
‘बुद्धिमान लोग व्यवहार को छोड़कर निश्चय में प्रवृत्त होते हैं इसका आशय यह है कि जब तक क्रिया में उलझे रहोगे निष्क्रिया को प्राप्त नहीं होगे। लेकिन ३ शब्द हैं- विक्रिया, क्रिया और निष्क्रिया! विक्रिया यानि शुभ कार्य, क्रिया यानि शुभ प्रयास, और निष्क्रिया यानि शुद्ध अवस्था!
जो विक्रिया में जी रहे हैं उन्हें विक्रिया छोड़कर क्रिया में आना चाहिए यानी अशुभ छोड़कर के शुभ में आना चाहिए। लेकिन जिन्होंने अशुभ को छोड़ दिया और शुभ में ही सन्तुष्ट हैं, उन्हें शुभ से ऊपर उठकर शुद्ध में आना चाहिए। वहाँ जिस विद्वान् की बात कही है वे आचार्य कुन्दकुन्द की बात है – “निश्चय के तत्त्व को छोड़कर के विद्वान् जन व्यवहार में प्रवृत्त नहीं होते” तुम्हें ऊपर उठने का अवसर है, तो नीचे क्यों आओगे? लेकिन जो नीचे खड़ा है, तो उसके लिए कहना पड़ता है -ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ी का आलम्बन जरूरी है। धरातल अशुभ है, सीढ़ी शुभ है और छत शुद्ध है। अब आप सीढ़ी चढ़ गए, आखिरी सीढ़ी तक पहुँच गए, उसके बाद भी सीढ़ी पर खड़े रहे हो, छत में जाकर के खुले आसमान का आनन्द लेने से वंचित हो रहे हो तो आप से बड़ा अभागा कौन होगा? उसके लिए कहते हैं- ‘विद्वान जन अन्तिम सीढ़ी पर रहने के बाद एक क्षण की प्रतीक्षा नहीं करते, सीधे छत की ओर चले जाते हैं।’ लेकिन जो अभी एक कदम भी नहीं चले, अभी सीढ़ी तक पहुँचे ही नहीं हैं और छत पर पहुँचाना चाहते हैं, उनसे कहना पड़ता है- ‘धरातल का मोह छोड़, इन सीढ़ियों का आश्रय, ले तभी छत पर पहुँच पाओगे।’
तो निश्चय व्यवहार के बिना नहीं होता, मतलब बिना सीढ़ी के छत पर नहीं चढ़ा जाता। यह साधन है साध्य नहीं। बिना साधन के साध्य नहीं मिलता। पर साधन में उलझ कर रह जाने वाले व्यक्ति भी साध्य नहीं पा सकते। तो साधन को साधन के रूप में अपनाओ। व्यवहार हमारा लक्ष्य नहीं लक्ष्य प्राप्ति का साधन है जब तक हम अपने परम लक्ष्य को प्राप्त न कर सकें तब तक व्यवहार को अंगीकार करें। जब परम लक्ष्य की उपलब्धि होने की स्थिति आ जाए हम अपने आप को ऊपर उठाएँ।
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