शंका
हमारे यहाँ वनस्पतियों को प्रत्येक एवं साधारण वर्ग में विभाजित किया गया है जो एक आत्मा के आश्रित होती है। आज बायोटेक्नोलॉजी से कई प्रकार के गुण एक जीव के गुण दूसरे में ट्रांसफर कर देते हैं और एक पत्ती से हजारों पौधे बना लेते हैं। जैन धर्म के हिसाब से इसकी किस प्रकार से व्याख्या कर सकते हैं?
समाधान
पूरा कथन जैन धर्म के अनुसार ही है। इसमें व्याख्या करने में कोई कठिनाई नहीं है। जैन धर्म में प्रत्येक वनस्पति के लिए कहा गया है कि वह अपने शरीर का मालिक स्वयं है, वह किसी के आश्रित नहीं है लेकिन उसकी जघन्य अवगहना घन अंगुल के असंख्यातवें भाग के समान है। आप बायोटेक्नोलॉजी और जेनेटिक इंजीनियरिंग के बेस पर जो उसका अंश लेते हैं वह घन अंगुल के असंख्यातवें भाग से भी बड़ा है और उसके बल पर विकसित करते हैं। यह सहज सम्भाव्य है, जैन धर्म से इसमें कोई बाधा नहीं है।
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