हम जो नल पर थैली लगाते हैं, वह कहाँ तक उचित है और कहाँ तक अनुचित है?
देखिए, नल पर थैली लगाने से यह लाभ तो होता है कि पानी की अशुद्धि बच जाती है। लेकिन जीवाणी नहीं होती। दूसरा उसका लाभ यह है कि इससे आपके जैन होने का पता चल जाता है। थैली तो लगानी ही चाहिए, लेकिन जीवाणी तो होती नहीं। थैली तो वहीं सूख जाती है। अब क्या करें? तो आप यह सोचिए कि छन्ने को आप अगर निचोड़ के भी रखेंगे तो भी वह कहीं न कहीं सूखेगा ही। पानी छानने की मूल भावना नल के छन्ने से पूरी नहीं होती। लेकिन स्वास्थ्य की दृष्टि से, भावनात्मक करुणा की दृष्टि से और जैनत्व को प्रख्यापित करने की दृष्टि से नल पर छन्ने बाँधने पर कोई दोष नहीं लगता। देखो, पानी छानने के प्रभाव की एक बात मैं आपको बताता हूँ; डॉक्टर शंकरदयाल शर्मा जब भारत के उपराष्ट्रपति थे। यह बात करीब 1986 या 1987 के आसपास की होगी। मध्यप्रदेश में भिलाई में (तब छत्तीसगढ़ नहीं बना था) एक पंच कल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव में वे आए थे। उन्होंने अपने जीवन की एक घटना सुनाई। वह घटना उनके मुख्य मंत्रित्व के काल की थी जब वह मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री होते थे। उन्होंने कहा कि इंदौर में एक विशेष प्रकार की बीमारी फैली। बीमारी ऐसी थी कि एक परिवार को बुखार आता और एक-एक करके पूरा परिवार बिस्तर पकड़ लेता। सब के सब बीमार रहने लगे। तो ऐसी स्थिति में लोगों को आश्चर्य तब हुआ जब बीमारी केवल एक मोहल्ले में सीमित रही और वहाँ जो जैन परिवार थे उन परिवारों में इस बीमारी के लक्षण कम थे। जब जाँच की गयी तो पाया गया कि जिस ओवर टैंक से वहाँ पानी आता था उसमें एक चिड़िया मरी हुई थी। उसका पानी विषाक्त था वो विषाक्त पानी पीने के कारण लोग बीमार पड़ते गए और जैन परिवारों में इस बीमारी का प्रभाव इसलिए कम दिखा क्यों कि जैनी लोग पानी छान कर के पीते थे। इसलिए पानी छान कर के ही पीना चाहिए।
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