किसी भी धर्म में कोई जाप – अनुष्ठान किया जाता है, तो उसके उपरान्त हवन की क्रिया क्यों आवश्यक होती है?
हवन का सबसे प्राचीन उल्लेख, यदि वर्तमान आगम ग्रंथों में हम देखते हैं, तो आचार्य जिनसेन कृत ‘आदि पुराण’ में देखने को मिलता है। आदि पुराण में गर्भान्वय, दीक्षयान्वय, कर्तान्वय की जो क्रियाये हैं, उनमें विभिन्न क्रियाओं में तीन प्रकार की अग्नि क्रियाओं को हवन की स्थापना के साथ-जिसमें एक तीर्थंकर कुंड, एक गणधर कुंड और एक केवली कुंड के रूप में- मान्य किया गया। इन ३ अग्नियों की साक्ष्य में हवन करने का विधान मिलता है। प्रतिष्ठा ग्रंथों में भी हवन करने का विधान है। इसलिए यह बात कहना कि हवन करना जैन परम्परा की मूल परम्परा नहीं है, ठीक नहीं है। यदि ऐसा मानते हैं तो हमें आचार्य जिनसेन की इस परम्परा को भी मूल परम्परा से बहिरूप मानना पड़ेगा। यह पूरे वातावरण की शुद्धि का एक बड़ा निमित्त बनता है। हाँ, हवन करने वाले को यह चाहिए, कि उसमें अविवेक न रखे, सविंधा अत्यन्त शुद्ध हो और सीमित हो, जिससे हमारा कम से कम में काम चल जाए। किसी भी प्रकार की विराधना न हो, ऐसी सावधानी यदि रखी जाती है, तो यह कर्म क्षय में विशेष निर्मित है, और लोकमंगल की कामना भी इसके साथ की जाती है। गर्भान्व्य में जितने भी क्रियाये हैं, प्रारम्भिक क्रियाओं में प्रतिक्रिया के बाद इस क्रिया का विधान है, अन्य क्रिया में भी है इसलिए इसका निषेध करना उचित नहीं है।
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