नाटक में साधु का किरदार करना कहाँ तक उचित है?

150 150 admin
शंका

धार्मिक आयोजनों में रात में नाटक आदि में साधु, सन्तों, माताजी का पात्र होता है जिसका अभिनय किया जाता है, अप्रतिष्ठित प्रतिमाएँ भी नाटक में दिखाई जाती है और दिन के दृश्य (आहार, पूजा, आदि) रात में दिखाए जाते है। क्या ऐसे करने में दोष लगता है?

सुदेश गोदिका, 10 बी स्कीम

समाधान

साधु आदि का अभिनय उचित नहीं है। हमारे गुरुदेव कहते हैं कि पंच परमेष्ठी नाटक आदि के पात्र नहीं होते। जीवन में कभी मुनि आर्यिका बनने का नाटक मत करना। यह संसार के नाटक मिटाने का भेष है, नाटक करने का भेष नहीं। इसलिए हम लोग कभी ऐसे नाटकों को प्रोत्साहित नहीं करते। हमारे गुरुदेव इस बात का स्पष्ट निषेध करते हैं।

आपको ब्रह्म गुलाल की कहानी याद होगी जो फिरोजाबाद का एक बहुत अच्छा बहुरूपिया था। वह जो भी रोल करता था, जीवंत रोल करता था जिससे उसका यश बढ़ता गया। राजा ने उसका रोल जानने के लिए उससे कहा कि “तुम्हें एक बार शेर का रोल करना होगा।” उसने टालना चाहा, पर राजा ने कहा कि “तुम्हे शेर का रोल करना ही होगा”। उसने कहा, “सरकार, ठीक है। अगर ऐसी बात है, तो मैं शेर का रोल कर लूँगा, पर मुझे एक खून की छूट देनी होगी। उसने शेर का रोल किया। वह राजा के दरबार में पहुंचा। राजा के बेटे ने उसे छेड़ दिया और शेर ने उस बच्चे को मार डाला। राजा वचन से बद्ध था, उसे दु:ख तो हुआ लेकिन कह नहीं सकता था। इसे भी दु:ख हुआ कि मैंने गलत कर लिया। राजा के दरबारियों ने जो ब्रह्म गुलाल से ईर्ष्या करते थे, उन्होंने कुचक्र रचा और राजा से कहा, “अब आप के परिणाम को समझाने के लिए कोई मुनि महाराज चाहिए। पास में कोई मुनि महाराज नहीं है, तो ब्रम्ह गुलाल से कहो कि वह मुनि बन के आएँ।” ब्रह्म गुलाल से जब मुनि बनने के लिए कहा गया तो ब्रह्म गुलाल ने कहा, “मैं और अभिनय तो कर सकता हूँ, लेकिन जिसकी आप बात कर रहे हो वह अभिनय मेरे लिए थोड़ा सा कठिन है।” जब उसको दबाव हुआ तो उसे मुनि बनना पड़ा। मुनि बनकर उसने राजा को जो उपदेश दिया राजा का हृदय परिवर्तन हो गया। राजा बहुत शान्त हुआ। राजा गद-गद हुआ कि मुझे तुम्हारे इस अभिनय पर बहुत नाज है। राजा ने उसे पुरस्कृत करना चाहा। ब्रह्म गुलाल ने कहा कि “नहीं, अभी तक मैंने जितने अभिनय किये, वे सब पुरस्कार के लिए किये और यह रूप मैंने धारण किया वह आत्म उद्धार के लिए किया है। दुनिया के और रूप बदले जा सकते हैं, पर यह रूप बदला नहीं जा सकता।” वह मुनि बने, तपस्या किए, फिरोजाबाद में ही उनकी समाधि हुई। इस तरह के रूप नहीं धरने चाहिए। नाटक में भगवान की पूजा आराधना आदि का दृश्य यदि दिन में दिन का दृश्य बता करके देख रहे हैं तो इसमें कोई भाव से दोष नहीं है।

Share

Leave a Reply