मन्दिर में वेदी की परिक्रमा करते समय प्राय: लोग भगवान के आगे से दर्शन कम करते हैं और पीछे से दीवार में अपना सिर झुकाते हैं, सतिया बनाते हैं,क्या ऐसा करना उचित है? क्या इसमें सम्यक्त में कोई दोष आता है?
पीछे से दर्शन करने की कोई आगमिक व्यवस्था नहीं है। यह क्यों हुआ? पुराने समय में वेदी का स्पर्श हर कोई नहीं कर सकता था शुद्ध व्यक्ति ही वेदी का स्पर्श करते थे। महिलाएँ वेदी को स्पर्श नहीं करती थीं। तो क्या करें? जो काम सामने से नहीं हो पीछे से कर लो। “परिक्रमा कर रहे हैं, यहां तो कोई नहीं देख रहा है, चलो भगवान के प्रति भक्ति से छू लो”; सो छूने की परम्परा चल गई होगी। मुझे इसके अलावा इसका और कोई तुक नहीं दिखता।
भगवान की वन्दना सामने से करो तो हमेशा भगवान के सामने रहोगे और भगवान की वन्दना पीछे से करोगे तो भगवान के पीछे ही रह जाओगे। भगवान के सामने रहोगे तो उद्धार होगा, पीछे से नहीं। पीछे से वन्दना करने का कोई औचित्य मुझे प्रतीत नहीं होता और उल्टा-सीधा सतिया बनाना तो और समझ में नहीं आता। सम्यक् दर्शन का दोष तो नहीं कहूँगा पर विवेक की कमी जरूर कहूंगा।
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