मन्दिर में जाकर पूजा करने में अधिक फायदा है या ध्यान लगाने में?
धार्मिक क्रियायें फायदा या नुकसान देखकर नहीं किया जाता है, ‘हमारा कर्तव्य क्या है?’ यह देखकर किया जाता है। तुम जैसे युवाओं का अक्सर यह सवाल रहता है। यदि तुम्हारा ध्यान अच्छा लगता है, तो तुम्हें पूजा करने की जरूरत नहीं, ध्यान लगाना चाहिए और प्रभु का ध्यान हो, स्वयं का ध्यान हो, दुनिया का ध्यान नहीं, समझ गये। ध्यान लगाओ, एक के लिए।
एक परिवार आया और बोला कि ‘महाराज जी! इससे कहो कि यह मन्दिर जाए, पूजा करे।’ उसने तुम्हारी तरह जवाब दिया कि ‘महाराज जी! मैं ध्यान करता हूँ।’ बहुत अच्छी बात है भैया कि तुम ध्यान करते हो तो यह तो बता दो किसका ध्यान करते हो? बोला ‘अपनी गर्लफ्रेंड का।’ अगर तुम सच्चे अर्थों में ध्यान करते हो तो मैं कहता हूँ तुम्हें पूजा करने की कोई जरूरत नहीं क्योंकि तुम आगे की class में चले गए। ध्यान हमारी विशुद्धि का बहुत बड़ा स्थान है लेकिन मुझे पता है ध्यान में हर कोई नहीं डूब सकता। ध्यान के नाम पर तो उछल-कूद करने वाले लोग बहुत हैं, आजकल बहुत सारी ध्यान की ऐसी थेरेपियाँ भी हैं। वो ध्यान नहीं, ध्यान है स्थिरता! ध्यान है गहराई! ध्यान है ठहराव! स्वयं के साथ स्वयं का केन्द्रीयकरण। यदि वैसा ध्यान तुम्हारे ह्रदय में आ जाए, तुम्हें पूजा करने की जरूरत नहीं, तुम्हें सत्संग में आने की जरूरत नहीं, तुम्हें प्रवचन सुनने की जरूरत नहीं पर यदि उतनी एकाग्रता की क्षमता तुम्हारे मन में नहीं है, तो पूजा, आराधना, सत्संग यह अपेक्षाकृत कम परिश्रम में हो जाता है।
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