क्या यह ज़रूरी है कि हम हर धार्मिक कथन से सहमत हों?

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शंका

अगर हर धार्मिक कथन में पूर्ण श्रद्धा न हो तो इसमें क्या कुछ भूल है? हमने धर्म को अपनी बुद्धि से, तर्क से, श्रद्धा से और आत्मा की आवाज से ग्रहण किया या करने का प्रयास करते हैं तो जब किसी कथन में पूर्ण श्रद्धा नहीं होती तो हम क्या आत्मा की आवाज का आश्रय लें, बुद्धि का आश्रय लें या श्रद्धा का आश्रय लें? कब किसका आश्रय लें?

समाधान

धर्म के हर कथन में हम पूरी तरह अपनी सहमति प्रकट करें, ऐसा कोई अनिवार्य नहीं। पर धर्म के मूल कथन से अगर हमारी असहमति है, तो जीवन में धर्म नहीं। मूलभूत कथन – आत्मा-अनात्मा के स्वरूप, तत्त्व के स्वरूप, मोक्ष मार्ग के स्वरूप- जिससे हमारा कल्याण होता है, उसमें हमारी श्रद्धा होनी चाहिए, सहमति होनी चाहिए और उसे ही अपने जीवन का आदर्श बनाकर चलने का संकल्प होना चाहिए। 

कई असहमतियाँ हो सकती हैं जो हमारे धर्मशास्त्रों में हैं प्रतिपादनगत है। हो सकता है वे बातें हमें समझ में न आएँ, हम उनको स्वीकार न करें लेकिन अस्वीकार भी न करें। ठीक है, मेरी समझ में नहीं आती, ये हमारे लिए प्रयोजनीय नहीं हैं। शास्त्रकारों ने लिखा है: 

अंतो णत्थि सुदीणं कालो थोवो वयं च दुम्मेहा।

तं णवरि सिक्खियव्वं जं जरमरणक्खयं कुणदि।।

शास्त्र का अन्त नहीं, काल थोड़ा और उस पर से भी हम दुर्बुद्धि हैं। इसलिए क्या करें-जो तुम्हारे जन्म-मरण का क्षय कर दे उसको तो जरूर सीख लेना। 

मूलभूत बात को आप पकड़ कर के चलें, जीवन में भ्रमित नहीं होंगे। आपने धर्म को श्रद्धा से, बुद्धि से, तर्क से, आगम से, आत्मा की आवाज से स्वीकार किया है, तो जो इन सबसे स्वीकार कर लिया, समझ लो उसका धर्म से अट्ठी-मज्जा अनुराग हो जाता है। अट्ठी-मज्जा अनुराग यानी अस्थि-मज्जा अनुराग – सबसे तीव्र अनुराग बताया है। अस्थि-मज्जा अनुराग अर्थात जैसे हड्डी के अन्दर मज्जा होती है (bone marrow ), ऐसे ही जिसके रग-रग में धर्म घुस गया, वह कभी धर्म से विमुख होगा ही नहीं है, तो उसके लिए हमें कुछ सोचने की जरूरत ही नहीं है और जो बातें अप्रयोजनीय है उनको जानने की आवश्यकता नहीं है।

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