पंच परमेष्ठी के आरती के अन्तर्गत हम “सोने का दीप, कपूर की बाती” बोलते हैं। परन्तु यथार्थतः दीपक जो हमारे हाथों में होता है वह न तो सोने का होता है, न बाती ही कपूर की होती है। तो क्या यह झूठ और मायाचारी नहीं कहलाएगा?
भगवान की पूजा में भावना की प्रमुखता होती है। आप लोग पूजा भी करते हैं तो कहते हैं-“कंचन थाल कनक घट नीर” तो न आपके पास सोने की थाल है, न कनक का यानि सोने का घट है, फिर भी आप बोलते हो, तो उसके पीछे भावना है। जिन भगवान की आरती उतार रहे हो, वे भगवान भी कहाँ हैं? अगर देखो तो पत्थर के देवता हैं, पत्थर की मूरत हैं, पर हमने श्रद्धा से बनाया है। जब हम पूजा-आराधना में लीन होते हैं तो अपने अन्दर का जो उत्कृष्टतम है, वह अर्पित करने की कोशिश करते हैं। तो हमारे हाथ में जो दीप है और जो बाती है उसे हमने सोने का थाल और कपूर की बाती का रूप भावों से बना दिया है। हमारे पास सामर्थ्य होती तो वो भी हम करते! इसमेंं मायाचारी नहीं है, यह भी एक भक्ति का तरीका है।
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