जब हम किसी एकेंद्रिय जीव की हिंसा करते हैं तो हमें पाप लगता है। परन्तु पेड़-पौधे जो कि एकेंद्रिय जीव है उसे काट कर खायेंगे तो पाप नहीं लगेगा क्या?
निश्चित, पाप तो लगता है, किसी भी तरीके से करोगे पाप लगेगा लेकिन जैन धर्म में गृहस्थों के लिए कहा गया कि ‘प्राणी के दो स्तर हैं- एक त्रस और दूसरा स्थावर! एकेंद्रियों को स्थावर कहते हैं और दो इन्द्रिय से ऊपर के जीव पाँच इन्द्रिय तक त्रस कहलाते हैं। ये कहा गया कि त्रस जीवों का घात कभी मत करना।’ स्थावर जीव के घात की छूट गृहस्थों को दी गई है, इसके बिना आपका जीवन नहीं चल सकता। उसके पीछे एक बात कही गई कि स्थावर जीवों का जीवन चक्र बहुत छोटा होता है। उनकी लाइफ सर्किल बहुत लिमिटेड होती है; जैसे पेड़ है, पेड़ में कोई फल उगा तो पक कर उसको टपकना ही है। बीज बोया गेंहूँ का, फसल होगी और वह सूखना ही है। इसके लिए कहा गया कि ये शक्या अनुष्ठान है, वनस्पतियाँ ही मनुष्य के भोजन के योग्य है बाकी चीजें नहीं है। इसलिए वनस्पति आदि को भोजन करके अपना काम चलाया जा सकता है। इसमें अल्प पाप है और त्रस जीवों के भोजन में महापाप है। कोई कह सकता है, ‘यह भी जीव है और जानवर भी जीव है फिर घास खाओ चाहे माँस खाओ बराबर है’, कई लोग ऐसा लॉजिक देते है। एक बच्ची ने मुझसे कहा कि ‘एक अंकल थे, कह रहे थे तुम घास खाते हो हम माँस खाते है ये बराबर है क्योंकि घास में भी जीव है और माँस में भी जीव है।’ तो हमने कहा, उनसे जाकर कहो कि “पेड़ में पत्ता टूटता है, तो दूसरा पत्ता उग आता है, आदमी का कान कटता है, तो दूसरा कान क्यों नहीं निकलता”। दोनों में बहुत अन्तर है।
Leave a Reply