लैपटॉप में जिनवाणी संग्रह कितना उचित?
मैं बहुत पुरानी बात बोल रहा हूँ। मैं जैन धर्म और दर्शन नाम की पुस्तक लिख रहा था। उसमें reference के लिए मुझे बहुत सारे ग्रंथों की आवश्यकता थी। तो मेरे पास काफी ग्रंथ थे। कटनी की बात है 1994 में मेरा चातुर्मास था। तो सारे ग्रंथ को मैं रख रहा था। वहाँ के एक प्रोफेसर थे। डॉक्टर सुभाष जैन- मैथमेटिक्स के प्रोफेसर। उन्होंने कहा कि आप इतने सारे ग्रन्थ रखते हैं इसमें आपका टाइम जाता है। मैं आपको एक छोटा सा लैपटॉप दे देता हूँ। आपका काम भी fast होगा और इतनी सब चीजें नहीं रखनी पड़ेगी। मैंने उन्हें आपके प्रश्न के संदर्भ में जो जवाब दिया वह आज आपके देना चाहता हूँ। मैंने कहा- “भैया मुझे मुनि रहने दो, मुनीम मत बनाओ।” बोले- “महाराज! आप इतने जब ग्रंथ रखते ह्रै तो इसकी जगह यह रखो, इतनी सारे पुस्तकें रखने की जगह यह रख लो।” मैंने कहा- भाई! मेरी जितनी सारी पुस्तकें हैं उनके लिए मुझे कभी ताला लगाने की जरूरत नहीं है। पर तुम्हारा लैपटॉप रख लूँगा तो मेरे सामायिक में मुझे ध्यान आएगा कि कोई ले ना जाए।
यह ग्रंथ मेरा उपकरण है और लैपटॉप, वह परिग्रह है। इसीलिए हम उपकरण में ही संतुष्ट हैं। इतना काम हो कि साधु लोग जो धर्म का ज्ञान दें आप श्रावक लोग उसको फैलाएं। श्रावक श्रावक का काम करें और साधु साधु का काम करें। उसी में धर्म की शोभा इसके अलावा और कोई नही।
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