संगीतमय विधान करते समय पूजा, आरती या अर्घ्य फिल्मों के गानों की धुन पर बजाये जाते है, क्या यह सही है?
ऐसा नहीं होना चाहिए! संगीत की धुन अगर फिल्मी धुनों के साथ हो जाये, तो बड़ा गड़बड़ हो जाता है। क्योंकि जब धुन चलती है, तो व्यक्ति का ध्यान धुन की तरफ हो जाता है, गाने के बोल की तरफ नहीं। औरों की बात तो जाने दीजिए, मैं अपनी बात कहता हूँ। मैं टीकमगढ़ में था, सन् २००० की बात है। वहाँ एक बहुत बड़ा विधान हो रहा था। बहुत सारे लोग उस विधान में शामिल थे। मैं शौच से निवृत्त होकर आ रहा था, सुबह से पूजा चल रही थी। पूजा में एक बोल बोला जा रहा था, मुझे पता नहीं बोल क्या बोला जा रहा है लेकिन उसकी धुन और लय सुनकर मेरे मानस पटल में उभरने लगा ‘शायद मेरी शादी का ख्याल दिल में आया है।’ मैंने सन् १९८४ में आखिरी फिल्म देखी थी। उसके बाद कभी फिल्म नहीं देखी, न कभी कोई गाना सुना था। जब हम जैसे साधु के स्मृति पटल में गाना उतर सकता है, तो तुम जैसे लोगों का क्या?
इसलिए जो भी ऐसे गाने-बजाने वाले आये तो उनसे कहो कि ‘तुम हमारा पुण्य बढ़ाने के लिए आए हो, पाप बढ़ाने के लिए नहीं, उन्हें रोको। मौलिक धुन लो, जैन धुन लो या इतनी पुरानी धुन लो जिसे लोग भूल गये हों। पूजा अपने आप संगीतमय है, उसको आप उसी धुन में गाओ! ये लोग छंद को रबर छंद बना देते हैं और स्वच्छंद होकर गाने लगते हैं, सारा मज़ा किरकिरा हो जाता है। इससे बचना चाहिए।
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