आजकल हर घर में भ्रूण हत्या (abortion) होता है। तो इसमें बच्चे का दोष होता है या मातृत्त्व का दोष होता है? कृपया इसका प्रायश्चित्त दीजिये क्योंकि यह कृत्य घर-घर में हो रहा है।
भ्रूण हत्या (abortion) बड़ा क्रूर कृत्य है। मैं तो कहता हूँँ कि abortion एक बच्चे की हत्या नहीं, मातृत्त्व की हत्या है। अगर एक बच्चे को थोड़ी-सी भी तकलीफ होती है, तो बच्चा भागकर सीधे माँ के आँचल में आता है और जब बच्चे को डीएनसी और अन्य इसी तरह की पद्धतियों के माध्यम से मारने का प्रयास किया जाता है, वो बच्चा बचने की कोशिश करता है, पर क्या करें? यदि वह बच्चा जन्म ले लिया होता तो निश्चित माँ के आँचल में आता और निश्चिंत हो जाता। पर अब क्या करें जब माँ खुद उसकी हत्यारिन बनकर उसे मारने पर आ तुली है। तो कौन बचा सकता है? यह घोर हिंसा है, क्रूर हिंसा है। यह मातृत्त्व की हत्या है, वंश की हत्या है, दया की हत्या है, करुणा की हत्या है, धर्म की हत्या है। ऐसे कृत्य को जीवन में कभी नहीं करना चाहिए, सपने में भी नहीं सोचना चाहिए। इससे अपने आप को बचाना चाहिए। क्या पता तुम्हारे पेट में रहने वाला वह बच्चा भविष्य में क्या बन जाए। मैं दो उदाहरण देता हूँँ- सन् 1992 की बात है एक इंजीनियर दंपत्ति मेरे पास आए। उन्होंने कहा, “महाराजजी, हमने abortion करा लिया, शादी के 1 महीने बाद ही बच्चा आ गया। हम लोगों ने बच्चा प्लान नहीं किया था। अब तो लोग बच्चा भी प्लान करके करना चाहते हैं। बड़े विचित्र हाल है। और महाराज जी, आ गया बच्चा, तो हमने उसका abortion करा लिया। 12 वर्ष हो गए, उसके बाद से हमारी कोख ही छिन गयी।” अब वो रोती है, बच्चा नहीं है। हम बोले, “प्रकृति ने तुम्हें बच्चा दिया। तुमने उसे असमय में मार दिया। अब क्या करोगे? बच्चा तो तुम खा गए।” और दूसरा उदाहरण- एक ने अल्ट्रासाउंड कराया, तो उसमें उनको बेटी बता दिया गया। दो बेटियाँ पहले से थी। बेटी बताने के बाद पहले तो मन में आ गया abortion करा लूँ, पर उसकी माँ अड़ गई। माँ ने कहा- जो हो, बेटी भी हमारे घर की लक्ष्मी है। दो है वैसे ही यह तीसरी भी पलेगी। हम यह हत्या का कार्य अपने घर में नहीं करने देंगे। माँ के आग्रह के बाद उन्होंने अपना प्रस्ताव बदल दिया और संयोग से जब बच्चा जन्मा तो बेटा हो गया। कौन हो सकता है कौन जाने और बेटी और बेटे का फर्क खत्म करना चाहिए। इतनी पढ़ी-लिखी पीढी़ होने के बाद भी बेटी और बेटे में फर्क करना अच्छी बात नहीं है। आप जो भी सन्तान प्रकृति से प्राप्त हुई, उसे स्वीकार करें। उसका आरक्षण करें। उसे पाले पोसे। कभी इस तरह के abortion जैसे कृत्य की कल्पना भी न करें। और जीवन में कभी किया हो, कराया हो, या करने वालों की अनुमोदना की हो तो उसका निश्चित रूप से प्रायश्चित्त करो। जब तक प्रायश्चित्त नहीं, तब तक तक सच्चे अर्थों में वे दान और पूजा के भी अधिकारी नहीं है। क्योंकि वह सूतक गृहस्थ है, प्रायश्चित्त लेना ही चाहिए।
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