क्या नाम लिखाकर दान देना सार्थक है?

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शंका

हम दान की राशि को २ तरह से देते हैं, पहला- नाम के साथ, दूसरा- गुप्त-दान के रूप में। दोनों में अन्तर क्या है?

समाधान

कुछ लोगों की अवधारणा है कि गुप्त दान देना चाहिए, नाम नहीं लेना चाहिए। पहले मेरी भी ऐसी धारणा थी कि “दान देने में क्या नाम?” लेकिन एक घटना से मेरी धारणा बदली। मैं राजगीर में था। वहाँ पर एक धर्मशाला आज से ७० -८० वर्ष पूर्व किसी परिवार ने बनवाई थी। जिन्होंने बनवाई थी उन्हीं का परपोता वहाँ दर्शन करने पंहुचा। उसने अपने परदादा जी का नाम देखा तो उसने लोगों से हो रही आपसी बातचीत में कहा- “यह वह क्षेत्र है जहाँ हमारे परदादाजी ने इतना बड़ा काम किया है, इतनी बड़ी धर्मशाला बनाई। परदादाजी के समय जो हमारी सामर्थ्य थी, आज हम उससे कई गुना आगे बढ़ गए हैं। हमें भी क्षेत्र में कुछ दान देना चाहिए और कुछ काम करना चाहिए”। यह है प्रेरणा!

मैं अपने कलकत्ता प्रवास के दौरान अग्रवाल जैन समाज और दिगम्बर जैन समाज के एकीकरण का प्रयास कर रहा था। उस क्रम में, उसमें से कुछ लोगों को नया मन्दिर में उन के दादा-परदादाओं के लिखे हुए नाम दिखा करके बोला गया – “देखो! तुम जैनी थे, तुम कहाँ भटक गए?” उसे देख कर वे मूल धारा में आए। तो नाम देना भी कभी-कभी बहुत काम का हो जाता है। इसलिए नाम न देने की धारणा एकांतिक है। अपनी पीढ़ियों को अगर हम धर्म से जोड़ना चाहते हैं तो नाम रखने में कोई दोष नहीं है। लेकिन नाम इसलिए मत दो कि ‘मेरा नाम हो’, इसलिए दो कि ‘जिनके साथ मेरा नाम जुड़ा है वह सब धर्म के कार्य में लगे रहें।’

लेकिन कुछ लोग ऐसे होते हैं कि छपाते पहले हैं, देते बाद में हैं, तो मामला गड़बड़ हो जाता है। इसलिए नाम देकर के दान दें, जो छुटपुट दान हो, उसे आप गुप्त दे दें, लेकिन कोई विशेष दान, जिससे औरों को प्रेरणा मिले, वहाँ नाम अवश्य दें। जैसे अभी आप यहाँ दान दे रहे हैं, ५० आदमी भी अगर दान चुपचाप दे दें, तो किसी को पता नहीं चलेगा, लेकिन अगर १०-२० आदमी का नाम सब के बीच आए तो उसके प्रभाव से खरबूजा भी खरबूजे को देखकर रंग बदल लेता है। १० लोगों का नाम से ११वें का मन बन जाता है, तो जिसके अन्दर भाव नहीं था उसका भाव जग जाता है। तुम्हारे निमित्त से उसका भाव जगा, तो नाम करना व्यर्थ कहाँ रहा? नाम से दिया गया दान भी सार्थक है, सर्वथा व्यर्थ नहीं।

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