क्या जैन-युवा धर्म से विमुख हो रहे हैं?
युवा धर्म से विमुख नहीं हैं, कदाचित धार्मिक क्रियाओं से विमुख भले हों। और धार्मिक क्रियाओं से विमुखता की वजह उसकी अनास्था नहीं, हमारे अन्दर का अविवेक और अतिरेक है। बहुत सारे लोग हैं जो धार्मिक क्रियाएँ करते हैं और विवेक पूर्ण दृष्टि नहीं रखते हैं। बहुत सारे लोग ऐसे होते हैं जो धार्मिक क्रियाएँ करते हैं और उसमें बहुत अतिरेक करते हैं। उनके जीवन में उसका कोई प्रभाव देखने को नहीं मिलता। जब ऐसे लोगों को हमारे समाज का युवा देखता है, तो सोचता है कि ‘भैया! यह इतनी धर्म की क्रियाएँ करते हैं इनके जीवन में कोई असर नहीं पड़ा तो मुझे क्या लाभ मिलेगा? अगर धर्म का यही रूप है, तो यह धर्म मेरे जीवन के किसी काम का नहीं’ और इस कारण से वह धार्मिक क्रियाओं से विमुख हो जाता है। पर धर्म से अभी विमुख नहीं हुआ, धर्म को वह उस क्षण भी मानता है। दया, प्रेम, करुणा, सच्चाई के प्रति उसकी निष्ठा होती है। भगवान के प्रति उसकी निष्ठा होती है। देव, शास्त्र, गुरु के प्रति उसकी निष्ठा होती है।
आप ने जैसा कहा कि युवा वर्ग ने बढ़-चढ़कर के इस अभियान में अपनी भागीदारी प्रदर्शित की, मैं इसे एक ही बात का प्रमाण मानता हूँ कि हमारे युवाओं के भीतर आज भी धर्म के प्रति लगाव कूट-कूट कर के भरा है। उनके हृदय में धर्म के प्रति लगाव है और यह लगाव आगे भी बना रहेगा। इस संदर्भ में, बस मैं एक ही बात कहना चाहता हूँ, हम नई पीढ़ी पर धर्म को थोपे नहीं, उनको धर्म ठीक ढंग से सिखायें और उनके भीतर की धार्मिक भावनाओं को जगायें। धर्म के व्यावहारिक स्वरूप का जीवन में क्या स्थान है, यदि युक्ति संगत तरीके से, तार्किकता के साथ, वैज्ञानिक पद्धति से आज के युवा के लिए यह बात बताई जाए तो बहुत उत्सुकता से वह इसको न केवल स्वीकार करता है, अपितु उसे अपने जीवन में अंगीकार भी कर लेता है। तो धर्म थोपने की चीज नहीं है। धर्म की भावना जगाने की आवश्यकता है। यदि ऐसी भावना जगाते रहें, तो सारे कार्य ठीक हो जायेंगे।
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