युवा वर्ग धर्म से विमुख है। युवाओं को स्वयं में क्या परिवर्तन लाना चाहिए कि वे धर्म से जुड़कर धर्म को अपनाने लगें?
युवा वर्ग धर्म से विमुख है, जो ऐसा कहा जाता है वो पूरी तरह सही नहीं है, मेरी अवधारणा इससे बिल्कुल अलग है। मैं मानता हूँ कि युवा वर्ग जितने अच्छे से धर्म करता है, समाज के प्रौढ़ और बुज़ुर्ग उतने अच्छे से धर्म नहीं करते। अगर युवा वर्ग धर्म से विमुख होता तो हम जैसे साधु नहीं बन पाते क्योंकि हमारे अन्दर जो धर्म आया वो यौवन अवस्था में ही आया और आज भी हम युवा हैं। आचार्य गुरुदेव का पूरा का पूरा संघ युवा है और आज भी संघ के सम्पर्क में रहने वाले हजारों की तादाद में रहने वाले युवक-युवतियाँ विशुद्धतया धर्म कर रहे हैं।
मेरा अनुभव यह बताता है कि युवा धर्म से विमुख नहीं होता धर्म के नाम पर चलने वाली जो रूढ़ियाँ हैं उनको वो पसन्द नहीं करते हैं। आज का युवा हर बात को बड़े तार्किक और वैज्ञानिक तरीके से समझना चाहता है। युवा को आप ठीक ढंग से समझाएंगे तो वह बहुत अच्छे से धर्म को ग्रहण करेगा; और युवा के ऊपर हम धर्म को थोप देंगे तो वह स्वीकार नहीं करेगा। युवाओं को धर्म से जोड़ने के लिए उन्हें धर्म की जो वास्तविक महिमा है वो बताने की ज़रूरत है। उसका सही स्वरूप दर्शाने की जरूरत है और उनके दिल- दिमाग में ये बात बैठाने की आवश्यकता है कि धर्म को धारण किए बिना जीवन का उद्धार नहीं हो सकता। जीवन में आने वाले उतार-चढ़ाव में स्थिरता लाने के लिए केवल धर्म ही एक ऐसा माध्यम है जो हमारा सहारा बन सकता है। जब ऐसे तरीके से युवकों को समझाया जाता है, तो उसके जीवन में बहुत बड़ा बदलाव आता है।
मैं आपको बताऊँ, आज से कुछ दिन पहले की बात है एक युवक मेरे पास आया, उसने अमेरिका से एम.एस. किया था। अपने माता पिता के आग्रह वश सम्मेद शिखर जी के दर्शन करने आया था। वो परिवार मुझे रोज सुनता है, चैनल के माध्यम से। वे उसे मेरे पास ले आए, वो लड़का मेरे पास बैठा बहुत अच्छी चर्चाएँ कि या करीब १५ मिनट मुझसे बातचीत की। धर्म विज्ञान से सम्बन्धित उसने बातें की लेकिन उसने जो बाद में एक टिप्पणी की, वह थोड़ी अगल प्रकार की थी। उसने कहा ‘महाराज जी! मैंने तो सोचा ही नहीं था कि आप से इतनी अच्छी चर्चा हो जाएगी। मैंने तो सोचा था मुनि महाराज जी संस्कृत में बातें करेंगे लेकिन आप इतने प्रैक्टिकल बातें कर सकते हो अपनी लाइफ के विषय में। धर्म का ये रूप हो सकता है मैंने कभी सोचा ही नहीं। मैंने तो सोचा था कि, मेरे माता-पिता महाराज जी के बारे में बता रहे हैं महाराज जी बहुत ज्ञानी हैं, तो कुछ संस्कृत में बातें करेंगे, कुछ शास्त्रों की दुहाइंयाँ देंगे और ज़्यादा है, तो मुझे कोई नियम दिलवा देंगे। आपने दोनों बातें नहीं की, मुझसे बहुत प्रैक्टिकल बातें की हैं और कोई नियम की चर्चाएँ भी आपने नहीं की। मैं तो आप से बहुत प्रभावित होकर जा रहा हूँ, मेरी धारणा बदली है। मेरे माँ-बाप अगर आपके पास मुझे नहीं लाते तो शायद मेरी धारणा परिवर्तित नहीं होती।’ मैंने उनके माँ-बाप की तरफ देखा तो वे बोले ‘महाराज जी! गलती इसकी नहीं है, ये ठीक कह रहा है हमने तो शुरू से ही इसको बाहर पढ़ाया है। इसने हॉस्टल के अलावा मन्दिर का कभी दर्शन ही नहीं किया, समागम ही नहीं पाया बस हम लोगों के संस्कार बस इतने थे कि वह अधार्मिक नहीं था। धर्म-कर्म की क्रियाओं के लिए जब कभी हम लोग कुछ कहें तो कर लेता। हमने कहा कि तुझे शिखर जी चलना है इसलिए शिखर जी का प्रोग्राम बना लिया।’
तो ये वास्तविकता है, ज़रूरत है युवकों को बातें ठीक तरीके से समझाने की। जब उन्हें धर्म को एकदम प्रैक्टिकल तरीके से बताया जाये तो वो बहुत सहजता से स्वीकार करते हैं और बहुत आगे बढ़ सकते हैं।
Mera yeh question hai ki zindagi simit hai per ichchayen simit nahin hai to donon ko balance kaise karen