जैनधर्म वैज्ञानिक धर्म होते हुए भी, जैन धर्मावलंबियों की संख्या कम क्यों?

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शंका

जैनधर्म वैज्ञानिक धर्म होते हुए भी, जैन धर्मावलंबियों की संख्या कम क्यों?

समाधान

बहुत अच्छी बात कियी। पहली बात तो जो वैज्ञानिक बोलते हैं हिग्ग्स बोसोंस (Higgs Bosons), भगवान की खोज वाला जो आया था, यह मूर्त है। जैन धर्म के अनुसार आत्मा अमूर्त है। वह सूक्ष्म तत्व तक तो गए हैं। लेकिन आत्मा तक नहीं गए। मैं आपको एक बात बताऊँ, विज्ञान की प्रयोगशाला में आत्मा का अनुसंधान नहीं हो सकता। भेद विज्ञान की प्रयोगशाला में आत्मा का अनुसंधान हो सकता है। इसलिए वह जहाँ पहुँचे हैं वह मूर्त तत्व है अमूर्ततत्व नही, वह केवल अनुभव गम्य है, शब्दों से कहा नही जा सकता इसलिए इस पर आप विचार करें।

एक जमाना था जब भारत में यहाँ की ८५% आबादी जैन थी जैन बहुसंख्यक है। आज स्थिति यह हो गई कि जैन अल्पसंख्यक और इतने अल्पसंख्यक कि उन्हें अल्पसंख्यक घोषित कराने के लिए मशक्कत करनी पड़ी। यह समाज का दुर्भाग्य है। 

जैन धर्म जन धर्म था। लेकिन बीच के कालो में राजकीय संरक्षण के अभाव में जैन धर्म के ऊपर और जैनियों के ऊपर भारी अत्याचार किए गए। जैनियों को बलात साम, दाम, दंड, भेद की नीतियाँ अपना कर धर्म से विमुख किया गया। जैन मंदिर तोड़े गए। जैन मुनियों को सूली पर चढ़ाया गया और जैन शास्त्रों की होलियां जलाई गई। आप जब इतिहास को पलट कर देखेंगे तो रोंगटे खड़े हो जाएंगे। 

आठवीं नौवीं शताब्दी तक जैन धर्म फिर भी बहुत अच्छी स्थिति में था। कलिंग का राष्ट्रीय धर्म आठवीं शताब्दी तक जैन धर्म था। ऐसा कहते सम्राट अमोघवर्ष जो नवमी दसवीं शताब्दी में हुए हैं। उनके काल में जैनियों की संख्या २५ करोड़ थी।  उसके बाद ११ वीं शताब्दी में राजा कुमार पाल के काल में १० करोड़ बची। उस के उपरांत सम्राट अकबर के काल में घटकर ४ करोड़ रह गई। आजादी के पूर्व अविभाजित भारत में जैनियों की आबादी २ करोड़ थी और वर्तमान सेंसेक्स के अनुसार जैन समाज में जैनियों की आबादी मात्र ५५ लाख बची है। तो अतित में राजकीय संरक्षण का अभाव हमारी संख्या को घटाने में कारण बना। फिर ११ वीं १२ वीं शताब्दी से मुगलों के आतंक वश दिगंबर मुनियों का निर्वाध विचरण रुक जानेसे जैन धर्म के प्रवर्तकों और प्रसारकों का सर्वत्र ना जा पाने के कारण भी हमारे बहुत सारे जैनी भाई संपर्क के अभाव में अजैन हो गए। अनेक ऐसी जैन जातियां है जो पूर्णता जैन धर्म का पालन करती थी, अजैन हो गई। जैसे इस क्षेत्र में सराक के नाम से जाने वाले लाखों सराख बंधु अजैन हो गए। इसी तरह आप जगदलपुर के आस पास जाएंगे, उधर जयसवाल समाज के लोग हैं, वह कभी जैन थे वह सब अजैन हो गए। इधर नागपुर पांडुरना आदि के बीच में भी एक बड़ा वर्ग है। उधर भी बहुत से लोग जैन हथे। सब अजैन हुए, कलार थे, जैन कलार कहलाते थे। कलभ्र वंशी राजा से, जो कलचुरी युग के राजा थे कलभ्र, वह सब कलार जैन राजा थे। उन्होने अनेक मूर्तियां स्थापित की मंदिर स्थापित किए उस काल में लेकिन वे सब धीरे-धीरे अजैन हो गए।

गांधी जी के विषय में ऐसा लिखा उन्होंने लिखा आपने उनके आत्मकथामें। उनके परिवार में जैन धर्म का पालन होता था। जैन साधु उनके आहार के लिए आते थे। जब वह भारत से बाहर गए तो बेचरदास जी दोशी, जो एक जैन साधक थे, उनसे ही उनकी माँ ने उन्हें तीन प्रतिज्ञा दिलाई थी। मास नहीं खाना, शराब नहीं पीना, पर स्त्री सेवन नही करना। और गांधीजी के ऊपर राजचंद जी का बड़ा प्रभाव था। उन्हें एक प्रकार से आध्यात्मिक गुरु के रूप में स्वीकार किया यह जैन थे। 

तो मोड़ बनिया काफी संख्या में जैन थे। यह धीरे-धीरे कन्वर्ट हो गए। तो इसका मतलब एक कारण तो यह हुआ कि जैन धर्म धीरे-धीरे विलुप्त के कगार पर आया। हमलों के कारण, सांप्रदायिक अभिनिवेश के कारण और इसी तरह की अन्य सामाजिक परिस्थितियों के कारण जैनियों का बड़ा ऱ्हास हुआ और प्रवर्तकोंका अभाव होने से भी। और वर्तमान में जैन धर्म की बात यह हुई कि धीरे-धीरे जैनिओं की मानसिकता भी सिमटती गई। एक काल में ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य और क्षुद्र चारों वर्णोंके जैनी रहते थे। अब जैनी केवल बनियों की समाज बनकर रह गई। केवल वैश्य रह गए। बाकी जो हमारी शास्त्रीय व्यवस्था थी उस अनुरूप आज व्यवस्था नहीं। समय काल के परिवर्तन से वर्ण व्यवस्था भी नष्ट हो गई। जाति व्यवस्था मुख्य हो गई। और जातियों का आग्रह इतना प्रबल हो गया कि एक दूसरे के साथ वह घुल मिल नहीं सके। बहुत सारी जातियाँ विलुप्त हो गई।

अभी मैं कोलकाता में था। तो कोलकाता में केवल २००० अग्रवाल जैन परिवार वैष्णव् हो गये। इसलिए कि उनका बेटी व्यवहार वैष्णवों से ही होता है। उनमें वे लोग भी शामिल है जिन्होंने बेलगछिया जैसे जिनालय का निर्माण कराया। वहाँ के सारे प्रमुख मंदिरों का निर्माण उन लोगों ने कराया। लेकिन आज उनके घर नमोकार मंत्र जपने वाला भी नहीं रहा।  हमारे चातुर्मास में ३०० परिवार वापस घर लौटे। और जैन धर्म से जुड़े और उनमें बड़ा हर्ष और बड़ा उत्साह हुवा। तो ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो इस तरह से परिवर्तित हुए हैं। 

तो यह परिवर्तन में हमारी कुछ मेरी धारणा के अनुसार जातीय कट्टरता, दकियानूसीपन इसने हमारी उदारता को, जो जैन धर्म की आंतरिक उदारता है उसे गौण कर दिया। और इसके निमित्त से जैन अजैन बन गए। 

और तीसरी बात आज जैन धर्म की मार्केटिंग ठीक ढंग से नहीं होती। यह बात अलग है कि आज अधिकतर जैनी मार्केटिंग के बिजनेस से जुड़े हैं। लेकिन वह जैन धर्म की मार्केटिंग ठीक ढंग से नहीं कर रहे हैं। आज भी विश्व में बोधिझम को लोग जितना जानते हैं, अन्य को जितना जानते हैं, कई जगह लोग जैनिझम को बिल्कुल नहीं जानते, जबकि यह एडवांस टेक्नोलॉजी (Advance Technology) का युग है। समाज को चाहिए कि हम कूपमंडूक बनकर ना रहे। जैन धर्म की ठीक रीति से प्रभावना करें, ठीक ढंग से, इस जैन धर्म में इतनी बड़ी ताकत है कि आज भी जैन धर्म जनधर्म है। 

मैं आपको बताऊँ, जॉर्ज बर्नार्ड शा (George Bernard Shaw) अपनी आयरिश भाषा में उनकी आत्मकथा लिखी है। उसमें उन्होंने एक जब उनसे तुषार गांधी ने प्रश्न किया, जो गांधी जी के पौत्र थे, कि आप की आगे क्या इच्छा है?  वह शाकाहारी थे। जब उन्हें जैन ग्रंथ मिले, जैन ग्रंथों को पढ़ने के बाद उन्होंने रात्रि भोजन भी त्याग दिया। और जब उनसे अगले जन्म के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा “if there is rebirth, I wish to reborn in Jain community”.  यदि कहीं पुनर्जन्म हो तो मैं जैन धर्म में ही जन्म लेना चाहूँगा यह उनके वक्तव्य थे। तो जैन धर्म ही एक ऐसा धर्म है जो जन धर्म बनने की स्थिति में है। तो जैन धर्म को जन धर्म बनाने के लिए हर जैनी को चाहिए कि अपने स्तर से जैन धर्म की प्रभावना करें और जन-जन तक जैन धर्म की गूंज उत्पन्न करें।

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